महाभारत का ही एक किस्सा, आज मैं फिर से बताती हूं।
अन्याय,अधर्म बने युद्ध का हिस्सा, वहीं था मन का संताप, सुनाती हूं।
ज्ञानी के हृदय में निरंतर चलता है कितना द्वंद, बतलाती हूं।
अधर्मी नहीं हो कर भी वो, निरंतर अधर्म का साथ ही दें।
फिर भी मन के किसी कोने में, चलता प्रलाप निरंतर उन के।
महाभारत का युद्ध चल रहा, गर्जन बाणों का रण में था भारी।
बाणों की रण में वर्षा करते, कौंतेय-कर्ण परस्पर बारंबारी।
दोनों ही थे श्रेष्ठ योद्धा, परस्पर एक दुजे पर थे भारी।
तरकस में से तीर उठाने, कर्ण ने हाथ बढ़ाया अपना,
फुंफकार भुजंग की सुन, विस्मित हो कर्ण लहराया।
भुजंग फुंफकार कर बोला मैं अश्वसेन सर्पों का स्वामी,
कर कृपा हे राधे्य मुझ पर, मैं वमन करुं विष अपना।
पार्थ है मेरा परम शत्रु, मैं परम हितैषी हूं तेरा।
एक बार कृपा कर मुझपर, मुझको प्रत्यंचा पर चढ़ने दें,
अपना विष वमन कर, अर्जुन को मृत्यु शैय्या पर सुलाने दें।
बोला कर्ण, है मुझे भरोसा, खुद अपने बाहुबल पर,
मैं इक नर हूं और खुद अर्जुन भी तो नर है।
नर को मारने की खातिर, कैसे मैं सहारा सर्प का लूं ,
जय को पाने, मैं कैसे, किनारा मानवता से कर लूं।
माना तेरे कितने वंशज, छिपे हुए मानव में हैं,
जंगल में ही नहीं, सर्प अब गांव-घरों में बसते हैं।
ये मनुज सर्प, लोगों के जीवन को मुश्किल करते हैं ,
शत्रु के वध के लिए सहारा जो सर्प का लेते हैं।
तेरी सहायता से बेशक मैं, विजय तुरंत पा जाऊंगा,
किंतु मैं आने वाले कल को कैसे,अपना मुख दिखलाऊंगा।
अर्जुन मेरा शत्रु है, मैं अपने बल से ही विजय को पाऊंगा,
विजय मिले या मिले पराजय, जो होगा देखा जायेगा,
किंतु विजय की खातिर मैं, छल-कपट नहीं अपनाऊंगा।
जय और पराजय है बस युद्ध का हिस्सा,
नहीं सनातन, ना अगले जन्म तक जाएगा,
फिर इस विजय की खातिर क्यों मैं अगला जन्म गवांऊंगा।
कर्ण था ज्ञानी, महादानी, नहीं होनी को वो टाल सका,
होनी है वो हो कर रहती, नहीं मनुज होनी से पा, पार सका।
- कंचन चौहान
*****

No comments:
Post a Comment