साहित्य चक्र

29 August 2025

अफ़साना और पुराने रिश्ते!


नंदू बड़ी खुशी और हल्की घबराहट के साथ शहर पहुँचा था। उसका बेटा अब शादी के बंधन में बंधने वाला था। दिल में उसने ठान रखा था कि जिन लोगों ने जीवन में उसे राह दिखाई, उनकी चौखट पर जाकर निमंत्रण देना उसका फ़र्ज़ है। सबसे पहले उसे याद आए अपने बड़े मासाब, वही, जिनकी सेवा उसने बचपन में मन से की थी।स्कूल में जब बाकी बच्चे खेलों में मस्त रहते, तब नंदू कभी तख़्ती धोता, कभी ब्लैकबोर्ड चमकाता, तो कभी कापी-कागज़ सजाता। डाँट भी पड़ी, थप्पड़ भी खाए, मगर नंदू के लिए मासाब की हर डाँट ममता जैसी ही थी।






और आज... बरसों बाद जब शादी का कार्ड लेकर उनके दरवाज़े पर पहुँचा तो शहर की भीड़, गर्मी और अजनबी गलियों ने उसे पसीने में नहला दिया। घर ढूँढने में मुश्किल हुई, पर आख़िरकार मासाब का पुराना मकान मिल ही गया।दरवाज़ा खोला तो सामने मासाब थे।

"सलाम मासाब! मैं नंदू... आपका पुराना शागिर्द।"पहले तो सहसा पहचान न पाए, फिर आँखों में चमक आ गई, "अरे, नंदू? तू आज भी याद करता है मुझे?"

नंदू ने कांपते हाथों से शादी का कार्ड उनके आगे रखा। "मासाब, मेरे लिए सम्मान ये होगा कि आप ज़रूर आइए। मैं चाहता हूँ मेरा बेटा जाने कि उसके बाप ने अपने गुरू को हमेशा दिल में रखा।"मासाब ने कार्ड लिया भी, मगर उनकी आँखों में कोई और सवाल तैर रहे थे। सोचने लगे, "कहीं ये ग़रीब मुझसे पैसे-वगैरह मांगने तो नहीं आया?"

चेहरे पर मुस्कान थी मगर जुबान पर दूसरा ही रस। उन्होंने बात बदलते हुए कहा,"थक गया होगा, आ चाय पी ले।"चाय आ गई, पर भोजन का ज़िक्र तक न हुआ। बच्चों को पुकार कर बुलाया भी नहीं। नंदू ने चुपचाप चाय पी और भारी मन से उठ गया। दिल में सोचता रहा,"शायद बड़े लोग ऐसे ही होते हैं। हम तो दिल से रिश्ते निभाते हैं, वे बस रस्म निभा देते हैं।"उसे याद आया, कैसे कभी मासाब के बेटा-बेटियों को उसने अपनी गोद में उठाकर घुमाया था, उनके लिए मिठाइयाँ लाया था, मेले से खिलौने खरीद कर दिए थे। मगर आज? कोई भी दरवाज़े पर आकर उसे पहचानने तक न निकला।


गाँव लौटते समय उसके दिल में कसक तो थी, मगर उसने खुद को समझाया, "मैंने अपना फ़र्ज़ निभाया। बुलाना मेरा काम था, आना-न-आना अब उनकी मर्ज़ी।" शादी भव्य रूप से संपन्न हुई। नंदू ने जी-जान से अहसान चुकाया, मेहमानों को इज़्ज़त दी। केवल मासाब न आए। उनका घर वैसा ही बंद रहा, और उसी बंद घर में कहीं दबा रहा नंदू का शादी का कार्ड,खुला तक नहीं। कुछ दिन बाद शुक्ला जी, जो उसी गाँव में अध्यापक थे, अचानक मासाब से मिलने पहुँचे।

मुलाक़ात पर मासाब ने पूछा- "अरे भई शुक्ला जी, कहाँ से आ रहे हो ?"

शुक्ला जी हँसते हुए बोले- "नंदू के लड़के की शादी से आ रहा हूँ साहब... क्या शानदार शादी की है! पूरे गाँव ने देखा, बड़ा रुतबा हुआ उसका।"मासाब सुनते ही नि:शब्द रह गए। भीतर कहीं एक दर्द-सा घर कर गया। उस कार्ड को जिस पर उन्होंने नज़र तक न डाली थी, उसी में वो खुशी लिखी थी जिसे सबने देखा, बस उन्होंने नहीं।शुक्ला जी चले गए। कमरे में अकेले मासाब की निगाह मेज़ पर पड़ी। वहाँ धूल तले दबा वही कार्ड रखा था। काँपते हाथों से उठाकर खोल ही लिया। और जब पढ़ा "डॉ. आनंद (एम.बी.बी.एस.)"

नंदू के बेटे का नाम देख उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। सालों तक जिन्हें उन्होंने ग़रीब समझा, उसी नंदू ने अपने बेटे को डॉक्टर बना दिया।और विडंबना देखिये, खुद मासाब अपने ही बेटे को अच्छी तालीम भी न दिलवा पाए थे।कार्ड उनके हाथ से फिसलकर ज़मीन पर गिर पड़ा, मगर दिल पर जो बोझ गिरा, वो ज़िन्दगी भर न उठ सका।मासाब की आँखें नम हो गईं।

उन्होंने सोचा, "मैंने पूरी उम्र किताबें पढ़ाईं, मगर आज शागिर्द ने मुझे सबसे बड़ा सबक सिखाया ,कि मेहनत और सच्चा दिल ही असली गुरू हैं।"उस दिन मासाब की आँखें धुँधली थीं। उनका दिल पछतावे से भरा था। और उसी कमरे में, धूल-जमे कैलेंडर और गिरे हुए कार्ड के बीच ,समय की सबसे सख़्त सच्चाई दर्ज़ थी, कभी-कभी शिष्य वही हासिल कर लेता है, जो गुरू नहीं कर पाता।


- डॉ. मुश्ताक अहमद शाह




No comments:

Post a Comment