मेरा बचपन गांव में गुज़रा है, अतः वह मोहक यादें, वह निश्छलता, वह चंचलता,वह स्वतंत्रता, शहरों में कहां।
आज भी उन दिनों की सुनहरी यादें दिलो दिमाग को ताजा तरीन कर देती है।
उन दिनों न पढाई का भारी बोझ था न ही बस्तों का, हां बड़े बड़े तख्त नुमा स्लेट होते थे जिसमें कोयला लगाकर चमकदार करना भी कोई पर्व से कम न था, मेरे पिताजी स्टेशन मास्टर थे।
इसलिए उनका तबादला रुरल एरिया या यों कहिए गांव में होता रहता था जिसका नाम कौवापुर, पचपेड़वा, तुलसी पुर, भवानी पुर आदि होते थे, शुरूआत की पढ़ाई मेरा गांव के स्कूलों में ही हुआ था।
दिन भर धमा चौकड़ी करना, बागों में घूमना, तालाबों से कमल के फूल तोड़ कर उसका माला बनाकर गले में पहनना, छुपा छुपी, गोटी, कबड्डी,आदि खेल थे उस समय के, साथ ही साथ गुड़िया खेलना, गुड़िया की शादी रचाना,घर से खटाई चुरा कर लाना सखियों एवं दोस्तों के साथ मिलकर खाना आदि बातें क्या भूलें से भूलती है ?
मैं मां-बाप की एकलौती लड़की थी, अतः रक्षा बंधन का त्योहार सब मेरे यहां आकर मनाते थे,हमलोग मिलकर रेशमी धागों से खुद ही राखी बनाते थे, मिठाई वगैरा की दुकान तो होती नहीं थी अतः घर पर ही मालपूए, शक्कर पारा आदि बनाया जाता था। मेरी ही मां क्यों सभी बच्चों की मां इस काम में हमलोगों की हाथ बंटाती थी।
मुझे यह अनुभव ही नहीं होता था कि मेरा कोई भाई नहीं है गांव के सभी लड़के भाई एवं गांव के सभी लड़कियां एक दूसरे की बहन भाई बन जाती थी। इसी भावना से प्रेरित होकर मैंने एक कविता लिखी थी जो आज साझा करना चाह रही हूं।
रक्त संबंध नहीं है फिर भी
हार्दिक संबध पावन है।
इस संबंध में बंधा हुआ,
जग का सारा जन जीवन हैं।
मै कैसे कह दूं सखी,
कुछ लोग यहां अनजाने है।
मुझे तो लगते सभी यहां
जैसे जाने पहचाने हैं।
केवल रक्षा बंधन ही क्यों हर त्यौहार सादगी से पर बड़े आत्मियता से मिलकर हम लोग मनाते थे।
गांव के पास थोड़ी दूरी पर जंगल भी था हम शैतान बच्चे कहां मानने वाले थे चल देते थे कभी कभी हम बच्चों की टोली,जंगल जलेबी खाने,केवांच तोड़ने, शहतूत खाने आदि क्या क्या शायद आज की पीढ़ी इन चीजों को जानती भी न होगी।
पांचवीं कक्षा तक मै गांव में ही रही फिर शहर आ गयी पढ़ने पर आज भी वह बचपन का दिन भुला नहीं हूं।
गर्मी की छुट्टियों में मै केवल गांव ही जाती थी। एमए करने के बाद मै गांव में अन्य बच्चों को पढाना, सिलाई कढ़ाई सिखाना, आदि का काम करती थी,मन को संतुष्टि मिलती थी।
लसोढे का अचार मुझे बहुत पसंद है अतः जब भी गांव जाती ले आती थी।अंत में मै यह कहना चाहुंगी कि यदि जीवन का वास्तविक आनंद लेना हो तो गांव से बेहतर कुछ नहीं।
- रत्ना बापुली, लखनऊ, उत्तरप्रदेश

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