राख़ी एक निहायत ही मुक़द्दस और जज़्बाती बंधन है, जो सदियों से भाई-बहन के रिश्ते की मज़बूती, मोहब्बत, ईसार और बे-ग़रज़ अपनाइयत का मज़हर रहा है। इस रेशमी धागे में सिर्फ़ धागों की मजबूती नहीं होती, बल्कि इसमें लिपटी होती है बहन के दिल की हर दुआ, हर फ़िक्र और हर महसूस किया गया जज़्बा। राख़ी वह महीन सा रिश्ता है, जो नज़र नहीं आता, लेकिन दिलों को ऐसे बाँधता है कि उम्र भर की दूरी और शिकवे भी इस धागे के सामने बेमानी हो जाते हैं।
यह पर्व हर वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राख़ी बांधती हैं और उनकी लंबी उम्र, सुख-शांति और हर बुरे वक़्त से हिफ़ाज़त के लिए दुआ करती हैं। बदले में भाई अपनी बहन की हिफ़ाज़त, सम्मान और हर ख़ुशी को अपनी ज़िम्मेदारी समझकर निभाने का वादा करता है। यह रस्म केवल एक सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि भारतीय तहज़ीब का वो अनमोल हिस्सा है जिसमें रिश्तों की गर्माहट, अपनापन और इंसानी जज़्बात गहराई से समाए होते हैं।
राख़ी का दिन घरों में सिर्फ मिठाइयाँ और उपहारों तक सीमित नहीं होता। इस दिन हर कोना खुशियों से जगमगा उठता है। नन्हें बच्चे रंग-बिरंगे कपड़ों में सजते हैं, बड़े बुज़ुर्गों के चेहरों पर मुस्कान बिखरी होती है और घर में प्यार और अपनत्व का माहौल एक जश्न की सूरत इख़्तियार कर लेता है।
इस मौक़े पर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि राख़ी सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि यह रिश्तों की उस बुनियाद का ज़िक्र है जो भावनाओं, विश्वास और ज़िम्मेदारियों पर टिकी होती है। जैसा कि कहा गया है- रिश्ते रस्मों से नहीं, बल्कि एहसासों से बनते हैं। यही एहसास राख़ी के दिन सबसे ज्यादा महसूस होता है।
यह त्योहार हमें यह भी सिखाता है कि आधुनिकता के इस तेज़ दौर में भी पारिवारिक मूल्य, सांस्कृतिक विरासत और भावनाओं की अहमियत कभी कम नहीं होती। राख़ी का यह रेशमी धागा हमारे समाज को मुलायम लेकिन मजबूत डोर से जोड़ने का काम करता है।
राख़ी सिर्फ एक त्यौहार नहीं, बल्कि यह हमारे तहज़ीबी शऊर और रूहानी वाबस्तगियों का आइना है। यह वह दिन है जो हमें यह सिखाता है कि प्यार, फिक्र और क़ुर्बानी ही रिश्तों की असल ताक़त होते हैं।
- डॉ. मुश्ताक अहमद शाह
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