राखी के दो धागों में...
प्यार बहिन का रचा-पचा है राखी के दो धागों में।
दुआ और आशीष गुंथा है राखी के दो धागों में।।
कभी रूठना कभी मनाना, भाई-बहिन का आपस में।
रिश्तों का संसार बसा है, राखी के दो धागों में ।।
एक वचन 'रक्षा' का लेना, या देना है पर्व यही।
रिश्तों का आधार मिला है, राखी के दो धागों में।।
कहीं भटक न जाऊँ दीदी, कहता है छोटा भाई।
मुझे नेह से बाँधे रखना, राखी के दो धागों में ।।
इसे दिखावा मान न लेना, पर्व अनूठा है यह तो।
सारा घर-संसार जुड़ा है, राखी के दो धागों में ।।
- राजेन्द्र श्रीवास्तव
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राखी का ये प्यारा त्यौहार,
भाई-बहन के रिश्ते का उपहार।
नन्ही कलाई पर बंधी एक डोर,
भावनाओं से भरी, स्नेह का शोर।
हर बहन की आंखों में सपना,
भाई का साथ, न कोई अपना।
वचन है रक्षा का, प्रेम अपार,
सिर्फ धागा नहीं, है संस्कार।
मीठी-सी मुस्कान लिए बहना आई,
थाल सजाकर आरती लाई।
रोली, चावल, और मिठाई साथ,
बंधा है इसमें बचपन का हाथ।
भाई ने भी मुस्कुराकर कहा,
“तू ही तो है मेरा खुदा।”
तेरे आंचल की छांव में पलूं,
हर जनम में तुझको ही बहन बनाऊं।
राखी की इस रीत में है अपनापन,
दूरी भी हो, फिर भी है बंधन।
ना कोई छल, ना दिखावा है,
ये प्रेम तो बस भावना का बहाव है।
सावन की खुशबू, बारिश की फुहार,
हर दिल में बसता रक्षाबंधन का त्यौहार।
संस्कारों की ये सुनहरी थाली,
हर घर में लाए खुशहाली।
चलो मिलकर मनाएं ये पर्व,
रिश्तों को दें फिर एक गर्व।
हर राखी बने भाई की ढाल,
हर बहना बने उस पर मिशाल।
- प्रियंका सौरभ
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राखी का मोल नहीं होता,
अनमोल प्यार की डोर है ये।
रिश्तों को जोड़े प्यार के बंधन में,
धागे ये प्यार के, अनमोल हैं ये।
राखी जब सजे कलाई पर,
बढ़ जाती शोभा रिश्तों की तब।
सद्भाव जुड़े ये धागों के,
सींचे ये रिश्तों, अहसासों को।
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक,
यादों में संजोए रिश्तों को।
धागे की कच्ची डोर है ये,
नहीं इसका मोल लगा सकते,
अनमोल प्यार की डोर है ये।
भाई- बहन के रिश्ते को,
खींचें है अपनी ओर सदा,
और जोड़े ये पक्के धागों से।
राखी का मोल नहीं होता,
अनमोल प्यार की डोर है ये।
सजती है जब ये कलाई पर,
बनती है वादा रक्षा का,
बहन के प्यार का प्रतीक है ये,
होती है दुआ ,भाई के लिए।
नहीं कोई मिलावट इसमें है,
अनमोल प्रेम की डोर है ये।
- कंचन चौहान
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भैया आए न अटरिया रामा,
आए न अटरिया
बीती जाए सावन की बहार
ओ हो आई गैल राखी का त्यौहार।
मोरे अच्छे से साँवरिया
ओहो प्यारे से सावॉरिया ,
लाओ भैया को आज बुलाए,
ओहो आई गईलै राखी का त्यौहार।
तरह तरह के धागा बुनकर,
राखी एक बनाया,
क,ई रंगों की मोती से उसको मैंने सजाया।
आज रोवत बाटे राखी का यह तार
ओ हो....
मोर बोले, दादुर बोले, पपीहा करे पुकार,
मोरे भैया अजहु न आए, हिया मे उठे हुंलार,
देखो सूना पड़ा हमरे सब देहरी और द्वार।
ओ हो आई गईलै राखी का त्यौहार।
सालन मे एक बार भाभी, आवत यह त्योहार,
पूरा सावन तुम मनाओ, एक दिन देवो उधार।
बदले मे हम तुमका देबै, अच्छा सा उपहार
भाभी आए गईले राखी का त्यौहार।
- रत्ना बापुली
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किसी को पाकर, फिर उसे खो देना…
बहुत मुश्किल होता है…
उस से मेरी मुलाक़ात कोई ज़्यादा पुरानी न थी,
और बिल्कुल नई भी नहीं थी।
बस एक ताआरुफ़ हुआ था कुछ महीनों
पहले कुछ गुफ़्तगू, कुछ सरसरी बातें,
लेकिन उस रोज़ की मुलाक़ात जैसे
मेरे दिल में किसी नक़्श की तरह उतर गई थी।
उसकी आँखों में एक अजब सी गहराई थी –
जैसे ख़ामोश लफ़्ज़ों में छुपी हज़ार कहानियाँ हों...
वक़्त ने करवट बदली।
उन चंद लम्हों ने अपनी अहमियत दिखानी शुरू कर दी।
हमारी मुलाक़ातें होती रहीं,
बातें लंबी होती गईं, और ख़ामोशियाँ भी गुफ़्तगू का हिस्सा बनती गईं।
और इसी दरमियान मैं उसके क़रीब आता चला गया।
शुरूआत में सारा मामला महज़ एक ताज्जुब या झुकाव तक महदूद था।
लेकिन कब वो मेरे अहसासात पर क़ाबिज़ हो गई,
मुझे ख़ुद भी एहसास न हुआ।
मैं जो मुहब्बत को महज़ एक मज़्मून समझता था,
कभी दिल से यकीन न किया था,
मगर उसकी मुस्कान ने मेरी सोच ही बदल दी थी।
मेरी फिक्रें, मेरा अंदाज़, मेरी तबीयत,
सब पर उसका असर दिखाई देने लगा।
और मैं उसकी जादूगरी में गिरफ़्तार होता चला गया...
उसकी ख़ुश-बयानी में एक सादगी और पाकीज़गी थी।
उसकी निगाहें सच्चाई से लबरेज़,
लफ़्ज़ों में नर्मी और दिल में इनसानियत की झलक।
पर उन आँखों में कहीं कोई चुप सा
छुपा दर्द भी मौजूद था,जिसे मैंने अक्सर महसूस किया था।
जो कभी कभी उसके बोलते लफ़्ज़ों के पीछे से झाँकता था।
एक दिन अचानक उसने मुझसे पूछा।
“क्या ख़्वाब देखना गुनाह है?”
मैंने बिना सोचे जवाब दिया:
"नहीं, ख़्वाब ही तो ज़िन्दगी को ख़ूबसूरत बनाते हैं।"
उसकी आँखें हल्के से भीग गईं।
उसने धीमे से कहा।
“किसी को पाकर, फिर उसे खो देना…
बहुत मुश्किल होता है…”
उस पल मेरे लफ़्ज़ों ने जवाब देने से इनकार कर दिया।
दिल उफान मार रहा था,
लेकिन ज़बान ख़ामोश थी।
मैं बस देखता रहा...
जब मेरे हाथ उसकी तरफ़ बढ़ने लगे,
तो जैसे मेरे वजूद ने मुझे ज़ब्त का हुक्म दे दिया।
आख़िर कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद
मेरे होंठ हिले,
तो सिर्फ़ उसका नाम निकला…
उसके लिए दिल में इतने जज़्बात थे
कि लगता था लफ़्ज़ कम पड़ जाएंगे।
मैं कहना चाहता था,
कि मेरी दुनिया अब उसी से शुरू होती है,
लेकिन वक़्त की नज़ाकत ने मुझे ख़ामोशी का लिबास ओढ़ा दिया।
मुझे मालूम था
वो एक शादीशुद खातून है…
किसी की अमानत।
पर फिर भी न जाने क्यों
वो मेरे दिल से निकलने का नाम न ले रही थी।
मैं उसकी अनजानी तकलीफ़ को जाना चाहता था,
उस तकलीफ़ के पीछे छुपे सारे राज़ खोल देना चाहता था।
हर दीवार को गिरा कर
उससे बस एक बार साफ़-साफ़ पूछना चाहता था,
"तुम्हारे दिल में क्या है?"
मगर दिल के अंदर एक और आवाज़ आई,
“तू ही तो दीवार है।”
मैं चौंका: “नहीं, ये ग़लत है… मैं कोई दीवार नहीं हूं!”
इसी उधेड़बुन में था कि
मोबाईल पर मेसेज का नोटिफ़ीकेशन आया।
बेमन से मोबाइल उठाया…
तो देखा- उसका मैसेज था,
“सुनिए… क्या हो रहा है?
मैं कल आपको अपने मम्मी-पापा के घर मिलूंगी।
क्यूँकि राखी का दिन है और मैं मायके जा रही हूँ।
आपका इंतज़ार करूंगी
अगर नहीं आए तो मैं नाराज़ हो जाऊंगी।”
अब दिल की दुनिया फिर उलझ गई…
राखी के दिन की तलब थी...
किंतु एक अजीब सी बेचैनी भी।
रक्षाबंधन आने को था,
और दिल के समुन्दर में लहरें उठ रहीं थीं।
क्या रिश्ता है ये...?
दिल कुछ और चाहता है,
मगर हालात कुछ और दिखा रहे हैं।
आख़िरकार वो दिन आ ही गया।
मैंने खुद को तैयार किया –
कई बार आइने में अपना अक्स देखा,
कपड़े बदले, बाल संवारे,
ख़ुद को किसी मिलने जा रहे आशिक़ से
कम महसूस नहीं कर रहा था।
जब वहाँ पहुँचा,
बहुत अपनापन महसूस हुआ –
जैसे सारा घर मेरे ही इंतेज़ार में था।
सबने हँसते मुस्कुराते स्वागत किया,
सब साथ बैठे, कुछ आपसी ताआरुफ़ हुआ,
गुफ़्तगू के सिलसिले में मैंने देखा कि दीवारों पर कई तस्वीरें टंगी थीं।
सहसा मेरी नज़र एक ऐसी तस्वीर पर पड़ी
जो बिल्कुल मेरी तरह थी… हूबहू!
मैं दंग रह गया-
लेकिन उस तस्वीर के नीचे लिखा था:
"स्वर्गीय..."
मेरा वजूद मुझे ज़ख्मी सा लगने लगा।
क्या मैं...?
नहीं... ये मुमकिन नहीं!
वो फ़ौरन मेरा चेहरा पढ़ गई।
नर्मी से बोली,
“आप घबराइए नहीं।
ये आपकी तस्वीर नहीं है...
ये मेरे भैया हैं...
जो बरसों पहले इस दुनिया से रुख़सत हो गए थे…
जब मैंने आपको पहली बार देखा,
तो लगा- मेरे भैया लौट आए हैं…”
सहसा मेरी आंखें भी भर आईं।
मैं जिसे महबूब समझ कर आया था,
वो मुझे दिल से अपनाते हुए
एक बहन बन गई।
फिर उसने धीरे से मेरे हाथ में राखी बाँध दी
और कहा,
“अब तो आप मेरे भैया हो ना?
कभी छोड़कर मत जाना।”
उस पल सारी मोहब्बत,
सारा एहसास,
एक मुक़द्दस रिश्ते में ढल गया था।
मुझे समझ आया-
इश्क़ महज़ पाने का नाम नहीं होता,
कई बार ये छोड़ने,
और रिश्तों की हद में रह जाने का नाम होता है।
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद
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