बच्चों बिन स्कूल
बच्चों के बगैर स्कूल खंडहर लगते हैं,
न हो बच्चे तो मैदान भी बंजर लगते हैं।
बच्चो से ही होता घर परिवार खुशहाल,
होते हैं इन्ही संग ही स्कूल भी निहाल।
इन बिन बगिया के फूल भी मुरझाये जान पड़ते हैं,
पेड़ों पर बैठे पंछी भी मायूस-उदास लगते है।
आसमां में छाए मेघ भी कहीं और बरस जाते हैं,
स्कूल के कमरे भी गुम और खामोश हो जाते हैं।
न होती कोई शिकायत ,ना कोई दोष लगाते हैं,
बंद सभी दरवाजों पर बस ताले नजर आते हैं।
न कोई चुलबुलाहट ,न कोई शोर सुनने में आते हैं,
आने जाने के सब रास्ते भी वीरान से नजर आते हैं।
सच है ये की बच्चों से ही स्कूल बड़े सुहाते हैं,
बिन बच्चों के तो ये खंडहर से नजर आते हैं।
- लता कुमारी धीमान
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सोचो तो सही
बिजली चमकी बादलों
की हुई गड़गड़ाहट
सुन यह सब मन में
हुई बड़ी घबराहट।
पता नहीं कैसे कैसे
विचार लगे याद आने
आज बच जाए बस
यही लगे दोहराने।
कहीं न कहीं तो ग़लत
हुआ है इंसान
भगवान यूं ही नहीं
कर रहा है परेशान।
वृद्ध आश्रम में बुजुर्ग
सड़क पर गौवंश
रिश्तों में बेईमानी अपनेपन
का नहीं बचा है कोई अंश।
धन इक्ट्ठा करने की लगी
है होड़
कोई मेरे से उपर न उठ
जाए बस यही लगी है दौड़।
सुधरने का अभी वक्त है
रे इंसान
कुछ अच्छा कर सदा के
लिए नहीं है तेरे लिए ये जहान।
बिजली चमकी बादलों
की हुई गड़गड़ाहट
सुन यह सब मन में
हुई बड़ी घबराहट।
पता नहीं कैसे कैसे
विचार लगे याद आने
आज बच जाए बस
यही लगे दोहराने।
कहीं न कहीं तो ग़लत
हुआ है इंसान
भगवान यूं ही नहीं
कर रहा है परेशान।
वृद्ध आश्रम में बुजुर्ग
सड़क पर गौवंश
रिश्तों में बेईमानी अपनेपन
का नहीं बचा है कोई अंश।
धन इक्ट्ठा करने की लगी
है होड़
कोई मेरे से उपर न उठ
जाए बस यही लगी है दौड़।
सुधरने का अभी वक्त है
रे इंसान
कुछ अच्छा कर सदा के
लिए नहीं है तेरे लिए ये जहान।
- विनोद वर्मा
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बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई...
दरके न थे जो पहाड़ कभी देव भूमि के
अपने साथ बहा कर उनको भी ले गई
तहस नहस कर गई घर बार लोगों के
बेशकीमती सामान जमींदोज़ कर गई
पूरे के पूरे गांव को नेस्तनाबूद कर गई
बादल फटने की घटनाएं अब आम हो गई
बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई...
मौत के घाट उतार गई सैंकड़ों जिंदगियां
कई परिवारों को तो ख़त्म कर गई ,
छोड़ गई अकेली मासूम निकिता को
सिराज में ऐसा गहरा ज़ख्म दे गई
सतलुज व्यास नदियां देखो उफान पर
अपने साथ बहा कर सब कुछ ले है
बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई...
उफनती रही व्यास, रौद्र रूप दिखा गई
राष्ट्रीय राजमार्ग का 700मीटर हिस्सा खा गई
मनाली से मंडी तक तबाही मचा गई
ऐतिहासिक पंचवक्त्र मंदिर का स्पर्श कर गई
नेचर पार्क झिड़ी को जलमग्न कर गई
बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई...
- बाबू राम धीमान
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मैं शिला हूँ
प्रकृति के सुन्दर रूपों में
एक अरूप बन गढ़ा हूँ
मैं शिला हूँ।
सनातन घर्म की आत्मा,
लेकर मंदिरों में सजा हूँ
मैं शिला हूँ।
शिल्पकार से प्राण दान
सजीव बन अड़ा हूँ।
मैं शिला हूँ।
विस्मृति के अंक में
स्मृति के बन चिन्ह
हर धर्म मे डटा हूँ
मैं शिला हूँ।
राम भी मैं, रहीम भी मैं,
एक रूप एक स्वरूप
एक भाव मे जड़ा हूँ।
मैं शिला हूँ।
कितना क्षोभित व व्यथित
कितना कठोर बन
नामों से जुड़ा हूँ
मैं शिला हूँ।
उच्च शीश हैं निवास महेश हैं।
पूजित हूँ धर कई भेष हैं
फिर भी धृणा पात्र हूँ
मैं शिला हूँ
मेरे गुण अवगुण
मेरे अरूप कण,
छेनी के ठोकर से
बन निखर गया हूँ
मैं शिला हूँ।
मानव जीवन भी
अवगुणों का फल
हार की छेनी से
सफल हुआ हूँ
मैं शिला हूँ।
मैं स्पन्दहीन बन स्पन्दन शील
अयोध्या के राम मंदिर मे जड़ा हूँ
मैं शिला हूँ।
- रत्ना बापुली
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अब तो विनती सुन ले।
मन व्यथित है या यूं कहें कि थोड़ा तनाव में है।
जाने क्या तेरे हिसाब में है।
प्रकृति का प्रकोप या कर्मों का फल
पर तूने चुना यही दौर यही स्थान है।
असमंजस है निराशा है परिणामस्वरूप आक्रोश भी है
बतला दे ओर कितना प्रलय तेरे आसमान में है।
ये सच है कि कारण स्वयं इंसान है
पर इतना क्रूर हो जाए क्या तू भी इस स्वभाव में है।
अब तो विनती सुन ले
भगवान हो जा
जानता हूं क्षमा करना तेरे विधान में है।
मुझे अटूट है विश्वास
तूने रोका है काल तक का ग्रास
द्वापर में उठाया था कनिष्ठिका पर गोवर्धन !
श्रद्धा,आस्था,प्रतीक्षा और आशा
कल युग की अब दांव पे है।
मन व्यथित है पर अब थोड़ा ध्यान में है
प्रगति या परिवर्तन कुछ तो तेरे मिजाज में है।
- अशोक कुमार शर्मा
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अभागी-अभागा
तीन बहिनों,
दो भाईयों का भाई,
मौत आई,
धर्मराज के पास ले आई!
सारे जन्म का हुआ लेखा जोखा,
गणित बैठाया,
फैसला सुनाया,
अपकर्म किए हैं भारी;
दंड भुगतना पड़ेगा!
अपनें ही बुने जाल में फंसना पड़ेगा!
फिर से किसी मम्मी की
कोख में जा दंड भुगतना होगा।
भुगत रहा था मैं,
और मम्मी थे कष्ट में,
बंद मुट्ठी,पांव ऊपर,
सिर बल कोख में खड़ा था मैं,
प्रभु आओ, मेरे कष्ट निवारो!
हरि भक्ति करुंगा मैं!
सारा जीवन तेरे अर्पण करुंगा मैं!
किया था वादा।
फिर से नई दुनियां में आया।
हुआ थोड़ा बड़ा फिर भागा भागा।
मौम कहे कम आन,
कम आन ,अभागा अभागा।
पूछा मैंने मौम व्हाट्स दिस अभागा अभागा ?
मैं इकलौती, योर डैडक्ष इकलौते।
एंड यू टू इकलौता।
हैन्स यू आर अभागा।
ना तेरे मामा ना मामी।
ना मासड़ मासी।
ना चाचा चाची
ना ताऊ ताई।
ना है तेरे कोई बहिन ना होगा बहनोई।
बिन राखी सूनी-सूनी सदा रहेगी तेरी कलाई।
नहीं होगा तेरा कोई चचेरा,
ना मौसेरा ना ममेरा ना फूफेरा।
ना सिस्टर ना ब्रदर।
और आज हैं कल नहीं रहेंगे मदर फादर।
कर्मों का हिसाब है
रिश्तों का अकाल है।
चला रह अकेले भागम भाग,
क्यों भूला प्रभुजी से किए वादे,
पड़ गया उल्टे धंधे,
फिर से पड़ेंगे यम के डंडे,
संभल सकें तो संभल जा बंदे
क्योंकि प्रबल है आशंका
नहीं रहेगा कोई नामलेवा।
जब होंगे ही इकलौती-इकलौता
तब हैं और रहेंगे
अभागी-अभागा।
अभागी-अभागा!
अभागी-अभागा!
- बृजलाल लखनपाल
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आँखें मत मूँद अब प्यारे
आँखें मत मूंद अब प्यारे, खो चुका तू हर मौका है।
मौके बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।
भाषण है अच्छे-अच्छे देता, कसमें बाजू उठा-उठा लेता।
नारे भी चीख-चीख कहता, रैलियों में बनता तू है नेता।
वादे अपने तू भूल सारे, फिर क्यूँ चिर नींद सोता है।
आँखें मत मूँद अब प्यारे, खो चुका तू हर मौका है।
मौके बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।
पेड़ो को काट-काट तूने, मरुदेश हरी धरा को बनाया है।
वनमहोत्सव मनाने के बहाने, बस छायाचित्र खिचवाया है।
फिर सुध न ली उन पौधों की, उस दिन जिन्हें खूब सहलाया है।
कंक्रीट के जंगल उगा डाले, अनंत हरे वृक्षो को बलि चढ़ाया है।
करम उलटे कर डाले, हिसाब पर क्यूँ सिसक-सिसक रोता है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चुका तू हर मौका है।
मौके बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।
पहाड़ों को चीर फाड़ तूने, सड़कों, सुरंगों का जाल बिछाया है।
मलबे को खड्डों, नालों में बहाकर, ध्वंस का तांडव रचाया है।
उथल पुथल कर-कर के तूने, बाढ़, भूस्खलन को खुद ही बुलाया है।
ऊँचे-ऊँचे बना कर टाबर, पक्षियों के अस्तित्व को विलुप्ति तक लाया है।
काट रहा अब फसल तू वो ही, जिसे तू बिन सोचे आया वोता है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चूका तू हर मौका है।
मौके बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।
भूल कर पत्ते की थाली, कागज़ और प्लास्टिक का प्लेट अपनाया है।
गलती-सड़ती नहीं जो, जलाकर भी जिन्हें जहरीला धुंआ ही छाया है।
घर का भर-भर कर कूड़ा, नदी नालों और सड़कों को कूड़ादान बनाया है।
जमीन को जहरीला कर डाला, खूब इस पर जहर का कहर बरपाया है।
रोग गंभीर परिणाम हैं इसके, इन पर अब क्यूँ हैरान होता है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चूका तू हर मौका है।
मौके तो बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।
पैदल चलना भूल गया दो कदम,
जखीरा गाड़ियों का हर-घर बनाया है।
इंधन की बढ़ रही खपत हर पल,
उठता काला बिषैला धुंआ काल बन आया है।
छोड़ आदत हाथों से मेहनत की,
दास खुद को मशीनों का पुरजोर बनाया है।
पल्ला प्रकृति से छोड़-झाड़ कर,
अलग अपना ही बेरंग एक संसार बसाया है।
सुकोमल प्रकृति ने देकर अपनी चेतावनियाँ बार-बार तुझे टोका है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चूका तू हर मौका है।
मौके तो बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।
अंधी विकास की होड़, दौड़ में,
तेज क्यूँ तूने खुद को इतना भगाया है।
अपना अतीत और वर्तमान सब,
विकसित भबिष्य खातिर दावं पर लगाया है।
भूल बैठा है तू उसको ही अब क्यूँ,
जिसने ये सारा सृष्टि रुपी चक्कर चलाया है।
जीव जगत की हर जरूरत की,
हर चीज़ का जिसने अथाह बाज़ार सजाया है।
रोक प्रकृति के अनंत प्रवाह को, प्रलय को खुद ही क्यूँ देता न्यौता है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चूका तू हर मौका है।
मौके तो बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।
- धरम चंद धीमान
*****




