साहित्य चक्र

30 August 2025

आज की रचनाएँ- 31 अगस्त 2025






बच्चों बिन स्कूल

बच्चों के बगैर स्कूल खंडहर लगते हैं,
न हो बच्चे तो मैदान भी बंजर लगते हैं।

बच्चो से ही होता घर परिवार खुशहाल,
होते हैं इन्ही संग ही स्कूल भी निहाल।

इन बिन बगिया के फूल भी मुरझाये जान पड़ते हैं,
पेड़ों पर बैठे पंछी भी मायूस-उदास लगते है।

आसमां में छाए मेघ भी कहीं और बरस जाते हैं,
स्कूल के कमरे भी गुम और खामोश हो जाते हैं।

न होती कोई शिकायत ,ना कोई दोष लगाते हैं,
बंद सभी दरवाजों पर बस ताले नजर आते हैं।

न कोई चुलबुलाहट ,न कोई शोर सुनने में आते हैं,
आने जाने के सब रास्ते भी वीरान से नजर आते हैं।

सच है ये की बच्चों से ही स्कूल बड़े सुहाते हैं,
बिन बच्चों के तो ये खंडहर से नजर आते हैं।


- लता कुमारी धीमान


*****


सोचो तो सही

बिजली चमकी बादलों
की हुई गड़गड़ाहट
सुन यह सब मन में
हुई बड़ी घबराहट।
पता नहीं कैसे कैसे
विचार लगे याद आने
आज बच जाए बस
यही लगे दोहराने।
कहीं न कहीं तो ग़लत
हुआ है इंसान
भगवान यूं ही नहीं
कर रहा है परेशान।
वृद्ध आश्रम में बुजुर्ग
सड़क पर गौवंश
रिश्तों में बेईमानी अपनेपन
का नहीं बचा है कोई अंश।
धन इक्ट्ठा करने की लगी
है होड़
कोई मेरे से उपर न उठ
जाए बस यही लगी है दौड़।
सुधरने का अभी वक्त है
रे इंसान
कुछ अच्छा कर सदा के
लिए नहीं है तेरे लिए ये जहान।


- विनोद वर्मा


*****

बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई
बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई...
दरके न थे जो पहाड़ कभी देव भूमि के
अपने साथ बहा कर उनको भी ले गई
तहस नहस कर गई घर बार लोगों के
बेशकीमती सामान जमींदोज़ कर गई
पूरे के पूरे गांव को नेस्तनाबूद कर गई
बादल फटने की घटनाएं अब आम हो गई
बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई...
मौत के घाट उतार गई सैंकड़ों जिंदगियां
कई परिवारों को तो ख़त्म कर गई ,
छोड़ गई अकेली मासूम निकिता को
सिराज में ऐसा गहरा ज़ख्म दे गई
सतलुज व्यास नदियां देखो उफान पर
अपने साथ बहा कर सब कुछ ले है
बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई...
उफनती रही व्यास, रौद्र रूप दिखा गई
राष्ट्रीय राजमार्ग का 700मीटर हिस्सा खा गई
मनाली से मंडी तक तबाही मचा गई
ऐतिहासिक पंचवक्त्र मंदिर का स्पर्श कर गई
नेचर पार्क झिड़ी को जलमग्न कर गई
बरसात अब की बहुत ज़ख़्म दे गई
कभी न भूल पाए ऐसे गम दे गई...


- बाबू राम धीमान

*****



मैं शिला हूँ

प्रकृति के सुन्दर रूपों में
एक अरूप बन गढ़ा हूँ
मैं शिला हूँ।
सनातन घर्म की आत्मा,
लेकर मंदिरों में सजा हूँ
मैं शिला हूँ।
शिल्पकार से प्राण दान
सजीव बन अड़ा हूँ।
मैं शिला हूँ।
विस्मृति के अंक में
स्मृति के बन चिन्ह
हर धर्म मे डटा हूँ
मैं शिला हूँ।
राम भी मैं, रहीम भी मैं,
एक रूप एक स्वरूप
एक भाव मे जड़ा हूँ।
मैं शिला हूँ।
कितना क्षोभित व व्यथित
कितना कठोर बन
नामों से जुड़ा हूँ
मैं शिला हूँ।
उच्च शीश हैं निवास महेश हैं।
पूजित हूँ धर कई भेष हैं
फिर भी धृणा पात्र हूँ
मैं शिला हूँ
मेरे गुण अवगुण
मेरे अरूप कण,
छेनी के ठोकर से
बन निखर गया हूँ
मैं शिला हूँ।
मानव जीवन भी
अवगुणों का फल
हार की छेनी से
सफल हुआ हूँ
मैं शिला हूँ।
मैं स्पन्दहीन बन स्पन्दन शील
अयोध्या के राम मंदिर मे जड़ा हूँ
मैं शिला हूँ।


- रत्ना बापुली

*****


अब तो विनती सुन ले।

मन व्यथित है या यूं कहें कि थोड़ा तनाव में है।
जाने क्या तेरे हिसाब में है।
प्रकृति का प्रकोप या कर्मों का फल
पर तूने चुना यही दौर यही स्थान है।
असमंजस है निराशा है परिणामस्वरूप आक्रोश भी है
बतला दे ओर कितना प्रलय तेरे आसमान में है।
ये सच है कि कारण स्वयं इंसान है
पर इतना क्रूर हो जाए क्या तू भी इस स्वभाव में है।
अब तो विनती सुन ले
भगवान हो जा
जानता हूं क्षमा करना तेरे विधान में है।
मुझे अटूट है विश्वास
तूने रोका है काल तक का ग्रास
द्वापर में उठाया था कनिष्ठिका पर गोवर्धन !
श्रद्धा,आस्था,प्रतीक्षा और आशा
कल युग की अब दांव पे है।
मन व्यथित है पर अब थोड़ा ध्यान में है
प्रगति या परिवर्तन कुछ तो तेरे मिजाज में है।


- अशोक कुमार शर्मा


*****


अभागी-अभागा ‌‍
तीन बहिनों,
दो भाईयों का भाई,
मौत आई,
धर्मराज के पास ले आई!
सारे जन्म का हुआ लेखा जोखा,
गणित बैठाया,
फैसला सुनाया,
अपकर्म किए हैं भारी;
दंड भुगतना पड़ेगा!
अपनें ही बुने जाल में फंसना पड़ेगा!
फिर से किसी मम्मी की
कोख में जा दंड भुगतना होगा।
भुगत रहा था मैं,
और मम्मी थे कष्ट में,
बंद मुट्ठी,पांव ऊपर,
सिर बल कोख में खड़ा था मैं,
प्रभु आओ, मेरे कष्ट निवारो!
हरि भक्ति करुंगा मैं!
सारा जीवन तेरे अर्पण करुंगा मैं!
किया था वादा।
फिर से नई दुनियां में आया।
हुआ थोड़ा बड़ा फिर भागा भागा।
मौम कहे कम आन,
कम आन ,अभागा अभागा।
पूछा मैंने मौम व्हाट्स दिस अभागा अभागा ?
मैं इकलौती, योर डैडक्ष इकलौते।
एंड यू टू इकलौता।
हैन्स यू आर अभागा।
ना तेरे मामा ना मामी।
ना मासड़ मासी।
ना चाचा चाची
ना ताऊ ताई।
ना है तेरे कोई बहिन ना होगा बहनोई।
बिन राखी सूनी-सूनी सदा रहेगी तेरी कलाई।
नहीं होगा तेरा कोई चचेरा,
ना मौसेरा ना ममेरा ना फूफेरा।
ना सिस्टर ना ब्रदर।
और आज हैं कल नहीं रहेंगे मदर फादर।
कर्मों का हिसाब है
रिश्तों का अकाल है।
चला रह अकेले भागम भाग,
क्यों भूला प्रभुजी से किए वादे,
पड़ गया उल्टे धंधे,
फिर से पड़ेंगे यम के डंडे,
संभल सकें तो संभल जा बंदे
क्योंकि प्रबल है आशंका
नहीं रहेगा कोई नामलेवा।
जब होंगे ही इकलौती-इकलौता
तब हैं और रहेंगे
अभागी-अभागा।
अभागी-अभागा!
अभागी-अभागा!


- बृजलाल लखनपाल


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आँखें मत मूँद अब प्यारे


आँखें मत मूंद अब प्यारे, खो चुका तू हर मौका है।
मौके बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।
भाषण है अच्छे-अच्छे देता, कसमें बाजू उठा-उठा लेता।
नारे भी चीख-चीख कहता, रैलियों में बनता तू है नेता।
वादे अपने तू भूल सारे, फिर क्यूँ चिर नींद सोता है।
आँखें मत मूँद अब प्यारे, खो चुका तू हर मौका है।
मौके बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।

पेड़ो को काट-काट तूने, मरुदेश हरी धरा को बनाया है।
वनमहोत्सव मनाने के बहाने, बस छायाचित्र खिचवाया है।
फिर सुध न ली उन पौधों की, उस दिन जिन्हें खूब सहलाया है।
कंक्रीट के जंगल उगा डाले, अनंत हरे वृक्षो को बलि चढ़ाया है।
करम उलटे कर डाले, हिसाब पर क्यूँ सिसक-सिसक रोता है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चुका तू हर मौका है।
मौके बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।

पहाड़ों को चीर फाड़ तूने, सड़कों, सुरंगों का जाल बिछाया है।
मलबे को खड्डों, नालों में बहाकर, ध्वंस का तांडव रचाया है।
उथल पुथल कर-कर के तूने, बाढ़, भूस्खलन को खुद ही बुलाया है।
ऊँचे-ऊँचे बना कर टाबर, पक्षियों के अस्तित्व को विलुप्ति तक लाया है।
काट रहा अब फसल तू वो ही, जिसे तू बिन सोचे आया वोता है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चूका तू हर मौका है।
मौके बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।

भूल कर पत्ते की थाली, कागज़ और प्लास्टिक का प्लेट अपनाया है।
गलती-सड़ती नहीं जो, जलाकर भी जिन्हें जहरीला धुंआ ही छाया है।
घर का भर-भर कर कूड़ा, नदी नालों और सड़कों को कूड़ादान बनाया है।
जमीन को जहरीला कर डाला, खूब इस पर जहर का कहर बरपाया है।
रोग गंभीर परिणाम हैं इसके, इन पर अब क्यूँ हैरान होता है।

आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चूका तू हर मौका है।
मौके तो बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।

पैदल चलना भूल गया दो कदम,
जखीरा गाड़ियों का हर-घर बनाया है।
इंधन की बढ़ रही खपत हर पल,
उठता काला बिषैला धुंआ काल बन आया है।
छोड़ आदत हाथों से मेहनत की,
दास खुद को मशीनों का पुरजोर बनाया है।
पल्ला प्रकृति से छोड़-झाड़ कर,
अलग अपना ही बेरंग एक संसार बसाया है।
सुकोमल प्रकृति ने देकर अपनी चेतावनियाँ बार-बार तुझे टोका है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चूका तू हर मौका है।
मौके तो बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।


अंधी विकास की होड़, दौड़ में,
तेज क्यूँ तूने खुद को इतना भगाया है।
अपना अतीत और वर्तमान सब,
विकसित भबिष्य खातिर दावं पर लगाया है।
भूल बैठा है तू उसको ही अब क्यूँ,
जिसने ये सारा सृष्टि रुपी चक्कर चलाया है।
जीव जगत की हर जरूरत की,
हर चीज़ का जिसने अथाह बाज़ार सजाया है।
रोक प्रकृति के अनंत प्रवाह को, प्रलय को खुद ही क्यूँ देता न्यौता है।
आँखे मत मूँद अब प्यारे, खो चूका तू हर मौका है।
मौके तो बहुत मिले तुझको, तूने तो दिया बस धोखा है।


- धरम चंद धीमान


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29 August 2025

अफ़साना और पुराने रिश्ते!


नंदू बड़ी खुशी और हल्की घबराहट के साथ शहर पहुँचा था। उसका बेटा अब शादी के बंधन में बंधने वाला था। दिल में उसने ठान रखा था कि जिन लोगों ने जीवन में उसे राह दिखाई, उनकी चौखट पर जाकर निमंत्रण देना उसका फ़र्ज़ है। सबसे पहले उसे याद आए अपने बड़े मासाब, वही, जिनकी सेवा उसने बचपन में मन से की थी।स्कूल में जब बाकी बच्चे खेलों में मस्त रहते, तब नंदू कभी तख़्ती धोता, कभी ब्लैकबोर्ड चमकाता, तो कभी कापी-कागज़ सजाता। डाँट भी पड़ी, थप्पड़ भी खाए, मगर नंदू के लिए मासाब की हर डाँट ममता जैसी ही थी।






और आज... बरसों बाद जब शादी का कार्ड लेकर उनके दरवाज़े पर पहुँचा तो शहर की भीड़, गर्मी और अजनबी गलियों ने उसे पसीने में नहला दिया। घर ढूँढने में मुश्किल हुई, पर आख़िरकार मासाब का पुराना मकान मिल ही गया।दरवाज़ा खोला तो सामने मासाब थे।

"सलाम मासाब! मैं नंदू... आपका पुराना शागिर्द।"पहले तो सहसा पहचान न पाए, फिर आँखों में चमक आ गई, "अरे, नंदू? तू आज भी याद करता है मुझे?"

नंदू ने कांपते हाथों से शादी का कार्ड उनके आगे रखा। "मासाब, मेरे लिए सम्मान ये होगा कि आप ज़रूर आइए। मैं चाहता हूँ मेरा बेटा जाने कि उसके बाप ने अपने गुरू को हमेशा दिल में रखा।"मासाब ने कार्ड लिया भी, मगर उनकी आँखों में कोई और सवाल तैर रहे थे। सोचने लगे, "कहीं ये ग़रीब मुझसे पैसे-वगैरह मांगने तो नहीं आया?"

चेहरे पर मुस्कान थी मगर जुबान पर दूसरा ही रस। उन्होंने बात बदलते हुए कहा,"थक गया होगा, आ चाय पी ले।"चाय आ गई, पर भोजन का ज़िक्र तक न हुआ। बच्चों को पुकार कर बुलाया भी नहीं। नंदू ने चुपचाप चाय पी और भारी मन से उठ गया। दिल में सोचता रहा,"शायद बड़े लोग ऐसे ही होते हैं। हम तो दिल से रिश्ते निभाते हैं, वे बस रस्म निभा देते हैं।"उसे याद आया, कैसे कभी मासाब के बेटा-बेटियों को उसने अपनी गोद में उठाकर घुमाया था, उनके लिए मिठाइयाँ लाया था, मेले से खिलौने खरीद कर दिए थे। मगर आज? कोई भी दरवाज़े पर आकर उसे पहचानने तक न निकला।


गाँव लौटते समय उसके दिल में कसक तो थी, मगर उसने खुद को समझाया, "मैंने अपना फ़र्ज़ निभाया। बुलाना मेरा काम था, आना-न-आना अब उनकी मर्ज़ी।" शादी भव्य रूप से संपन्न हुई। नंदू ने जी-जान से अहसान चुकाया, मेहमानों को इज़्ज़त दी। केवल मासाब न आए। उनका घर वैसा ही बंद रहा, और उसी बंद घर में कहीं दबा रहा नंदू का शादी का कार्ड,खुला तक नहीं। कुछ दिन बाद शुक्ला जी, जो उसी गाँव में अध्यापक थे, अचानक मासाब से मिलने पहुँचे।

मुलाक़ात पर मासाब ने पूछा- "अरे भई शुक्ला जी, कहाँ से आ रहे हो ?"

शुक्ला जी हँसते हुए बोले- "नंदू के लड़के की शादी से आ रहा हूँ साहब... क्या शानदार शादी की है! पूरे गाँव ने देखा, बड़ा रुतबा हुआ उसका।"मासाब सुनते ही नि:शब्द रह गए। भीतर कहीं एक दर्द-सा घर कर गया। उस कार्ड को जिस पर उन्होंने नज़र तक न डाली थी, उसी में वो खुशी लिखी थी जिसे सबने देखा, बस उन्होंने नहीं।शुक्ला जी चले गए। कमरे में अकेले मासाब की निगाह मेज़ पर पड़ी। वहाँ धूल तले दबा वही कार्ड रखा था। काँपते हाथों से उठाकर खोल ही लिया। और जब पढ़ा "डॉ. आनंद (एम.बी.बी.एस.)"

नंदू के बेटे का नाम देख उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। सालों तक जिन्हें उन्होंने ग़रीब समझा, उसी नंदू ने अपने बेटे को डॉक्टर बना दिया।और विडंबना देखिये, खुद मासाब अपने ही बेटे को अच्छी तालीम भी न दिलवा पाए थे।कार्ड उनके हाथ से फिसलकर ज़मीन पर गिर पड़ा, मगर दिल पर जो बोझ गिरा, वो ज़िन्दगी भर न उठ सका।मासाब की आँखें नम हो गईं।

उन्होंने सोचा, "मैंने पूरी उम्र किताबें पढ़ाईं, मगर आज शागिर्द ने मुझे सबसे बड़ा सबक सिखाया ,कि मेहनत और सच्चा दिल ही असली गुरू हैं।"उस दिन मासाब की आँखें धुँधली थीं। उनका दिल पछतावे से भरा था। और उसी कमरे में, धूल-जमे कैलेंडर और गिरे हुए कार्ड के बीच ,समय की सबसे सख़्त सच्चाई दर्ज़ थी, कभी-कभी शिष्य वही हासिल कर लेता है, जो गुरू नहीं कर पाता।


- डॉ. मुश्ताक अहमद शाह




वास्तविक सुंदरता


किसी व्यक्ति या स्त्री की सुंदरता सामान्यत: उसके रंग,रूप, शरीर सौष्ठव, कद-काठी आदि के आधार पर आंकी जाती है। परंतु यह किसी व्यक्ति विशेष की बाहय सुंदरता में आती है और बाहय सुंदरता के द्वारा हम किसी व्यक्ति की ओर एक दृष्टि में या अल्प काल के लिए तो आकर्षित हो सकते हैं, परंतु यह आकर्षण स्थायी नहीं होता।

किसी व्यक्ति विशेष की वास्तविक सुंदरता उसकी आंतरिक सुंदरता होती है, जो उसके व्यवहार, विचारों और उसके कर्मों में दृष्टिगोचर होती है, जो स्थायी, मनमोहक और वातावरण को सुखद बना देती है।






मधुर व्यवहार, सुविचार और श्रेष्ठ कर्म वाले व्यक्ति की ओर कोई भी सहज ही आकर्षित हो जाता है। मधुर व्यवहार, सुविचार और श्रेष्ठ कर्म ऐसे तीन आभरण हैं जो व्यक्ति विशेष को शारीरिक सौंदर्य का अभाव होने पर भी स्वतः आकर्षण का केंद्र बना देते हैं और यही वह सच्ची एवं वास्तविक सुंदरता है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावशाली आकर्षक और मोहक बना देती है।


लेखक- प्रवीण कुमार




धन से कई गुना ताकतवर होती है 'शिक्षा'


आज सभी लोग धन कमाने के लिए दौड़-भाग कर रहे हैं या धन के पीछे पागल हुए जा रहे हैं। लोगों ने शिक्षा को भी धन कमाने का एक जरिया मान लिया है, जबकि शिक्षा, धन से कई गुना ताकतवर होती है। शिक्षा हमें वह सब कुछ दिला सकती है, जो हम धन से नहीं खरीद सकते हैं। उदाहरण के लिए हम भले ही कितने ही अमीर क्यों ना हो जाए, ज्ञान और आत्मविश्वास को हम बिना शिक्षा से प्राप्त नहीं कर सकते है। इसलिए हम सभी को अपने जीवन में धन के बजाय शिक्षा को सर्वोच्च स्थान देना चाहिए।




मैंने महसूस किया है अधिकांश दलित, पिछड़े और गरीब लोग शिक्षा को वह महत्व नहीं देते, जितना धन को देते है। धन भले ही आप के परिवार को दो वक्त की रोटी और अच्छा घर दिला सकता है, मगर बिना शिक्षा के धन को बचा पाना मुश्किल है। मैं आपको अपने दोस्त सौरभ वर्मा के परिवार की कहानी बताता हूं। सौरभ के पापा और चाचा दो भाई थे और दोनों में खूब प्रेम था। दोनों का सोने-चांदी के साथ-साथ ट्रांसपोर्ट का व्यवसाय था। एक दिन अचानक सौरभ के पापा की मृत्यु हो गई। दोनों परिवारों में टकराव आ गया और दोनों परिवार अलग-अलग हो ग‌ए। सौरभ के बड़े भाई ने अपना खुद का सोने-चांदी का काम शुरू कर लिया और दूसरे भाई ने टैक्सी लेकर टैक्सी चलाना शुरू कर दिया।


सौरभ के चाचा के तीन बेटे थे और तीनों ही ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे। सौरभ के चाचा ने अपने एक बेटे को अपने साथ रखकर सोने-चांदी का काम सिखाया और दो बेटों को ट्रांसपोर्ट वाले व्यवसाय में लगा दिया। सौरभ के चाचा ने अपने बड़े बेटे की शादी की और शादी में खूब दहेज मिला यानी एक-दो गाड़ियां भी मिली। इसके बाद सौरभ के चाचा के बेटे ने अपनी खुद की सोने-चांदी की दुकान खोल ली।




इस दौरान सौरभ के चाचा के बेटे को किसी दूसरी लड़की से भी प्रेम हो जाता है और उसको बिना ब्याह घर ले आता है। शादी टूट जाती है और सौरभ के चाचा को बेटे की शादी में मिले दहेज को वापस करना पड़ता है। यूं कहे तो उनका यही से डाउनफॉल शुरू होता है। एक दिन अचानक सौरभ के चाचा के बड़े बेटे ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। लोग कहते हैं कि उसकी गर्लफ्रेंड ने उसे जहर दे दिया था, मगर सच्चाई क्या है आज तक किसी को नहीं पता चल पाया।

सौरभ के चाचा का एक बेटा मर चुका था और ट्रांसपोर्ट व्यवसाय से जुड़े दो बेटे भी शराब के आदी हो चुके थे। आए दिन कुछ ना कुछ कांड करते रहते थे। कभी गाड़ी ठोक देना, कभी गाड़ी को खेतों में चढ़ा देना इत्यादि। व्यवसाय को सही से नहीं चला पाने के कारण ट्रांसपोर्ट के बिजनेस में सौरभ के चाचा को लगातार नुकसान होता जा रहा था। फिर क्या था एक बेटा पागल हो गया। कुछ दिन बाद सौरभ की चाची का देहांत भी हो गया। अब सौरभ के चाचा अकेले पड़ गए और घर की परिस्थितियों को देखकर उनका भी हौसला टूटने लगा। बिगड़ी हालातों को देखकर सौरभ के चाचा को अपने ट्रांसपोर्ट वाले व्यवसाय को धीरे-धीरे कम करना पड़ा।

स्थानीय लोगों को लगता था कि यह व्यक्ति पूरे क्षेत्र में सबसे अमीर है, मगर हकीक़त यह थी कि उसने लोन के सहारे ट्रांसपोर्ट का बिजनेस शुरू किया था। इतना ही नहीं स्थानीय लोगों ने सौरभ के चाचा की दुकान से जो गहने व जेवरात बनाए थे उनमें भी मिलावट की शिकायत आने लग गई। कहते है ना जो जितना अमीर होता है, वो उतना ही भ्रष्ट होता है। एक दिन अचानक सौरभ के चाचा का भी देहांत हो गया।





एक जमाना हुआ करता था सौरभ के चाचा पूरे क्षेत्र में सबसे अमीर माने जाते थे। जिनकी 8-10 बसें चलती थी और पूरे क्षेत्र में उनकी सोने की दुकान बहुत ही फेमस थी। मगर कहते हैं ना अगर आप ज्यादा कमाने के चक्कर में मिलावट करेंगे और गलत तरीके से कमाने की कोशिश करेंगे तो एक दिन आपका सब कुछ खत्म हो जाएगा।

इतना ही नहीं अगर सौरभ के चाचा अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करते तो शायद उनका ट्रांसपोर्ट वाला बिजनेस बच जाता और इसके अलावा उनके बच्चे कोई दूसरा काम या नौकरी भी कर सकते थे। ज्यादा कमाने की लत, मिलावट करने की आदत और शिक्षा से ज्यादा धन को तवज्जो देने के कारण आज सौरभ के चाचा का परिवार लगभग समाप्त है। वर्तमान में सौरभ के चाचा के परिवार में सिर्फ एक बेटा और एक बहु और दो बच्चे हैं। धन के साथ शिक्षा का भी उतना ही महत्व है, जितना हमारे लिए ऑक्सीजन के साथ पानी का होता है।

- दीपक कोहली



27 August 2025

आज की रचनाएँ- 27 अगस्त 2025





सृष्टि और जीवन

आनी जानी इस सृष्टि की,
आओ बताएँ रहस्य गहरा।
पंच तत्व की काया पर,
दे रहा ज्यों सॉस पहरा।

बुद्धि का विवेक निशदिन,
देता है मन को भाषण।
कार्य सफल कर ले प्राणी,
काल कव्लित है यह जीवन।

सृष्टि मध्य जो दिख रहा,
भ्रम है माया का बसेरा,
अदृश्य हृदय से देख तू,
कर्म है जिसका सबेरा।

कर्म को पैरो मे बाँध,
नाचता लट्टू सा जीवन।
क्या बुरा व क्या भला,
हरदम बिधँता मन मे प्रश्न।

प्रहर सा जाता है बीत,
जीवन समय का प्रवाह।
बचपन यौवन व बुढ़ापा का
आवागमन होता अबाध।

चाहे लाख सवारो यहॉ पर,
अपनी कुटिया अपना बसेरा।
तेरा नही कुछ भी यहॉ
मृत्यु का न कोई सबेरा।

जान कर भी अनजान बन,
सब लगे हुए हैं बटोरने।
चाहे इसके खातिर हमको
करने पड़ते झमेले कितने।

प्राणो का प्यारा रत्न,
प्रेम को हम गए भूल।
आपस की बैमन्स्यता मे
बो रहे हैं कंटक शूल।

न इस जग की हो पाई,
न उस जग की सुनी पुकार।
व्यर्थ मे निज जीवन को,
बासना से कर दी बेकार,

स्वच्छ जीवन बचपन का जो
मै लाई थी नियति पार।
उसमे दुनियावी रंग भरकर,
कर दिया बेरंग अपार।

निर्मल निःशछल और कंलकहीन,
हो सकता था मेरा भी जीवन।
पर हाय इस माया मे फंसकर,
मैने कर ली आत्म हनन,

सृष्टि व जीवन के मध्य
चलता रहता अविरल नर्तन।
एक पुरातन जाता है तो
दूसरा आ जाता है नूतन।

सृष्टि का यह रहस्य समझ भी
रहे हमारे हाथ ही रीते।
पल दो पल जब सॉसे बॉकी,
तभी क्यो आया भाव पुनीते।

मैने तो गरल पिया इस जग का
पर तुम न पीना मेरे भाई
जैसा बीज बोया सबने,
वैसा ही फल सबने पाई।


- रत्ना बापुली


*****


हे हज़रत मोहम्मद साहब!
क्या कट्टरता ही इस्लाम है ?
क्या दूसरे धर्मों और पंथों से,
नफरत करना ही इस्लाम है ?
साहब! आप ही बताओ,
आपका बनाया इस्लाम कैसा है ?
इन‌ पाखंडी मौलवियों ने
इस्लाम के नाम पर ना जाने
कितने फतवे जारी कर दिए हैं।
कोई कहता है काफिरों को मारो
कोई कहता है बहत्तर हुर्र मिलेंगे
तो कोई कहता है...
ये हराम है, वो हराम है!
साहब! एक बार सच्चा इस्लाम
इन नमाज़ियों को आकर बताओ।


- दीपक कोहली


*****


मैं चाहती हूँ
धू धू कर स्वाहा हो जाए,
इस दुनिया की समस्त आधी आबादी।
ताकि जहमत न उठानी पड़े
बार-बार, बात-बात पर इन्हें
जलाने की तुम्हें सदियों से।
कभी सती प्रथा के नाम पर,
कभी दहेज की भट्टी में।
कारण हर बार वही
कामना है अर्थ की,
हर धधकती अग्नि के पीछे।
कल्पना करती हूँ उस विश्व की,
जब धन के ढेर पर बैठे
तुम सब बिलखो मृत्यु के भय से।
क्योंकि खत्म होगी तुम्हारे वंश की निरंतरता,
आधी आबादी के खत्म होने के साथ ही।
और विलोप हो जाएगा डायनासोर की तरह,
इस पृथ्वी से मानव का अस्तित्व भी।


- मेधा झा


*****


नज़्म गूंगी हो गई है
गीत चुप्पी साध बैठे
मौन हैं अश’आर सारे
कौन इनको पार तारे
मैं की जिसने दिल की खिड़की
खोल दी दुनिया की जानिब
और उसके रंग देखे ढंग देखे
फूल के बदले में आते संग देखे
और तब से दिल जो पत्थर हो गया है
प्यार मरुथल में नदी सा खो गया है
वो जो भोलापन था मेरी ज़िंदगी था
या कहूँ सादा सी मेरी बंदगी था
इक समझ की उसपे काई जम गई है
ज़िंदगी बहते से जैसे थम गई है
अब अधूरे गीत रह जाते हैं मेरे
शाम हैं होते नहीं जिनके सवेरे
नज़्म भी अपनी रवानी खो चुकी है
जैसे मेरी आँख पानी खो चुकी है


- डॉ. पूनम यादव


*****


ज्ञानी हैं देश में मात्र चार ही
चारों में है एक तरह की निपुणता
उछाल मारती है मेरिट इनमें
ठूस ठूस कर भरा होता है टैलेंट
'राष्ट्रवाद' के हैं सच्चे संपोषक
जुबान पर ही होती है 'संस्कृति'
बैठेते हैं जब कभी एक साथ
तब सुनने लायक होती है इनकी ज्ञान भरी बातें
दरअसल यही हैं गांधीवादी
यही हैं मानववादी
यही हैं राइटिस्ट और यही हैं लेफ्टिस्ट
चारों में है एक और गुण
सत्ता के अनुसार जानते हैं अपने को ढ़ालना
भले विश्वविद्यलायों में नहीं पचते इन्हें बहुजन के बच्चे
पर दलित चेतना पर यही देते हैं भाषण
बोलता है पहला ज्ञानी दूसरे ज्ञानी को
"विश्वप्रसिद्ध ज्ञानी"
तो दूसरा समर्पण भाव से
पहले को कहता है
कम हैं क्या आप भी?
हैं आप पूरे "अंतरिक्ष के जाने माने ज्ञानी"
इतने में बोल पड़ता है तीसरा
हां, सच में हैं पहले वाले "वैश्विक ज्ञानी"
और आप यानि दूसरे वाले कोई कम हैं क्या
आप भी हैं पूरे अंतरिक्ष में प्रसिद्ध
पर आपलोग कम नहीं समझना
मेरे बगल में बैठे चौथे को
है प्रसिद्धि इनकी तीनों लोक में
इसलिए मैंने की घोषित है इनको
"त्रिलोकी ज्ञानी"
सकुचाते हुए बोल पड़ते है चौथे
पीछे पीछे समर्थन में पहले दूसरे वाले
घोषित करते हैं तीसरे ज्ञानी को
पूरे "ब्रह्मांड का सबसे बड़ा ज्ञानी"
ऐसे तय करते है चारों अपने ज्ञानी होने का वर्ग
और डूब जाते हैं चारों आत्ममुग्धता में
और ऐसे कह कह कर अपने को कर लेते हैं कब्जा
देश के समस्त संसाधनों पर।


- संतोष पटेल



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जहाँ भी रहना पूरी तरह रहना
उस स्त्री ने ख़ुश रहने का यह मंत्र थमाया था
उसने यह नहीं बताया
कहीं पूरा हो सकने के लिए
कैसे बटोरे जा सकते हैं अपने अवशेष
ख़ुद को कितना तराशना होता है
कि सम्पूर्णता एक छल नहीं लगे
वह जो कभी प्रेम ने नहीं दिया
और ईश्वर ने भी
वह जो जीवन के वश में ही नहीं
उसे मृत्यु से माँगना व्यर्थ है
नहीं, ख़ुशी नहीं
बस पूरी तरह उदास हो सकने का अधिकार
नौकरी पर जाते हुए मैं आत्म सम्मान
घर की दराज़ में बंद कर आती हूँ
घर लौटकर छिपा देती हूँ अपनी बाहर वाली चप्पलें
इस तरह मैं दोनों जगह पूरी हो पाती हूँ
भव्यता के द्वार पर जाते हुए
ठीक से धो लूंगी अपने हाथ-पैर
नहीं, कहीं कोई रक्त नहीं था
इतिहास की थोड़ी धूल थी
अब सब कुछ पूरी तरह साफ़ है
बचपन में मेरे आस पास बहुत कुछ ऐसा था
जिन्हें कह सकने के लिए मेरे पास शब्द पूरे नहीं थे
इन दिनों आपके पूछने पर
ठीक-ठीक कह नहीं सकूंगी अपना हाल
नहीं, शब्द हैं मेरे पास
बस मैं ही कहीं नहीं हूँ, पूरी तरह


- रश्मि भारद्वाज


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एक प्रयोग ग़ज़ल के हर शे’र में मुहावरों के इस्तेमाल का
देखिए हर शे’र में न्याय कर पायी हूँ या नहीं।
जिन्हें हम प्यार से दिन रात पलकों पर बिठाते हैं
वही अक्सर हमें क्यूँ ख़ून के आंसू रुलाते हैं
पड़े जब काम तो वो आपको मक्खन लगाते हैं
निकल जाए जब उनका काम तो दामन छुड़ाते हैं
थमा कर हाथ अपना हम जिन्हें चलना सिखाते हैं
वही इक दिन हमें अपने इशारों पर नचाते हैं
हज़ारों आरियाँ चलती हैं सीने पर हमारे जब
हमारी आँख के तारे हमें आँखें दिखाते है
अलग हैं रास्ते सबके अलग हैं मंज़िलें भी फिर
किसी के रास्ते में लोग क्यूँ काँटे बिछाते हैं
जो बचपन में ही पा लेते हैं मंज़िल अपनी मेहनत से
बड़े हो कर वो अक्सर चैन की वंशी बजाते हैं
हवा देते हैं पहले तो ये सब ग़मख़्वार ज़ख़्मों को
बहा कर चार आँसू उनपे फिर मरहम लगाते हैं
हुआ क्या है ये दौर-ए-नौ के इंसानों को या मौला
ये हर इक बात पर क्यूँ आसमाँ सर पर उठाते हैं
ग़ज़ल कहना नहीं है खेल बायें हाथ का 'मधुमन'
इसे कहने में शाइर के पसीने छूट जाते हैं।


- मधु मधुमन



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दहेज
कब तक जलेंगी बेटियाँ
उन चूल्हों की आग में,
जहाँ रोटियाँ नहीं,
लालच की लपटें पकाई जाती हैं?
कब तक जलेंगी बेटियाँ
उस सोने-चाँदी के बोझ तले,
जहाँ इंसानियत का तौल
सामान के तराज़ू पर किया जाता है?
कब तक झुकेंगी माएँ
समाज के सामने सिर झुकाकर,
जबकि उन्होंने जन्म दिया है
एक ऐसी संतान को
जो किसी भी घर का गौरव बन सकती है।
दहेज-
ये शब्द नहीं,
एक कलंक है
जो सभ्यता के माथे पर
दिन-प्रतिदिन गहराता जाता है।
क्या बेटी का जन्म
सिर्फ़ इसलिए शाप है
क्योंकि उसकी विदाई
सोने-चाँदी के सिक्कों से तौली जाती है?
नहीं!
बेटी तो धरती की शीतलता है,
चाँदनी की उजास है,
ममता का अमृत है,
संस्कारों की नींव है।
तो फिर क्यों जलाया जाता है
उसके सपनों को,
उसके जीवन को,
उसकी कोमल काया को
दहेज के लालच में?
अब समय है-
इन ज्वालाओं को बुझाने का,
समाज की मानसिकता बदलने का।
बेटी कोई बोझ नहीं,
बेटी हर घर की आस है।


- मधु शुभम पाण्डे


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नहीं मालूम किस दिन कौन से किरदार में होंगे,
ये दौलतमंद हिस्सेदार हर सरकार में होंगे।

सड़क फुटपाथ पर होंगे हमेशा की तरह हम तुम,
लुटेरे देश के महंगी, विदेशी कार में होंगे।

हमारी तो कलम की नौंक उनके दिल में चुभती है,
कभी ये सोचिए भी मत कि हम दरबार में होंगे।

किसी राजा से कम हैं क्या, यही उनके ठिकाने हैं,
किसी जलसे में शामिल होंगे या फिर बार में होंगे।

अचानक डाल देंगे सामने आकर वो हैरत में,
किसी को भी नहीं मालूम किस अवतार में होंगे।

हमारे मसअले संसद में कोई क्यों उठाएगा,
किसी चेनल की ख़बरों में न हम अख़बार में होंगे।


- अशोक रावत

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जी करता है

बहुत जी करता है

बहुत जी करता है
जी लूँ हर वह क्षण,
जब नटनागर रास रचाते थे,
मधुर बंसी की तान पर
संसार को मोहित कर जाते थे।

बहुत जी करता है
देखूँ वह रात, जब जन्म लिया नागर ने,
कैसे सो गए पहरेदार,
कैसे खुल गईं जंजीरें,
कैसे उमड़ती यमुना का जलस्तर
उनके पग-स्पर्श से धीरे-धीरे थम गया।

बहुत जी करता है
जी लूँ वह पल जब यशोदा मैया
लाल संग खेला करती थीं,
जब बलदाऊ संग गोपाल सखा
गली-गली में विचरते थे।
देखूँ सुदामा का स्नेह,
गोपियों की चहकती हँसी,
और कान्हा की माखन चोरी।

बहुत जी करता है
सुनूँ ब्रज की नारियों की शिकायतें,
देखूँ राधा संग उनका अनन्त प्रेम,
महसूस करूँ वह छेड़खानी,
जहाँ बंसी की धुन पर
हर हृदय स्वयं को भूल जाता था।

कभी-कभी लगता है
यह भाव जो हृदय में उमड़ता है,
शायद उस युग की कोई स्मृति है।
क्या मैं भी कोई गोपी थी?
या ललिता-सी सखी,
वृषभानुजा सम प्रेमिका?
क्या यह पुनर्जन्म उसी का परिणाम है?

नहीं, मैं रुक्मिणी नहीं जीना चाहती,
मैं जीना चाहती हूँ मीरा का विरह,
राधा का अनन्य प्रेम,
गोपियों का उल्लास,
ब्रज की होली का रसमय रंग।

बहुत जी करता है
जी लूँ वह पल जब
नटवर नागर ने गोपियों के वस्त्र छुपाए थे,
जब यमुना किनारे राधिका को बुलाने
बंसी की मधुर तान गूँजती थी।
काश! उस युग में मेरा जन्म हुआ होता,
काश! मैं भी एक गोपी होती,
और कान्हा के चारों ओर
चक्कर काटती रहती।

बहुत जी करता है
देखूँ कंस का वध,
पांडवों की रक्षा,
द्रौपदी की लाज बचाते वे करुणा-मूर्ति।

जीना चाहती हूँ हर वह क्षण,
जहाँ कृष्ण हैं, जहाँ प्रेम है,
जहाँ समर्पण है।
क्योंकि
कृष्ण बनना तो सरल नहीं,
पर कृष्ण में खो जाना
यही सबसे बड़ा सुख है।


- सविता सिंह मीरा


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मुनादी द्वारा
रायसीना हिल्स से
विकास के नये माँडल
लागू करने का फरमान जारी हुआ
लोग डिजिटल बने
सुनकर होड़ मच गई
स्मार्टफोन और लैपटॉप के
की-बोर्ड पर करोड़ो उंगलियां थिरकने लगी
लोग सर्च करने लगे नेट पर
जादुई विकास के मॉडल को
बात गुफाओं तक पहुंची
ध्यानलिन संतों के चेहरे खिल उठे
सबों ने साधुवाद कहा
भक्त अब मुफ्त मे
हवाई यात्रा कर सकेंगे
लोग अफवाहों से बचें
क्या फर्क पड़ता है
एम्बुलेंस नहीं मिली
मृत बेटे को पीठ पर बांध
पिता पहुंचा गांव
फंदे से झूलता कर्ज मे डूबा किसान
कुव्यवस्था का मारा
चली गई कई मासूमों की जान
सरकार की मंसा है
गुफाओं मे प्रयोग आनेवाली
कुछ खास बुटियों के साथ
चीलम को भी जीएसटी फ्री रखा जाये
क्योंकि यह
आत्मा औऱ परमात्मा से
मिलन का योग बनाता है
लोग डिजिटल बने
यही मुक्ति का सही मार्ग
दिखाएगा।


- अजय अतीश


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मेरे पाठकों
मेरे पाठकों, मुझे माफ करना
मेरी कविताएँ नहीं दे पाएँगी तुम्हें
सुकून,
आनंद,
और हास्य।
मेरी कविताएँ जन्म लेती हैं
सड़क से,
हाशिए से,
या ठाकुर के कुएँ से।
मेरी कविताओं में यक़ीनन मिलेगा तुम्हें
दुःख,
आक्रोश,
और उबाल।
और मिलेगी
अंतर्व्यथाओं की जलती-सुलगती मशाल।
मेरी कविताएँ जला सकती हैं आग,
जगा सकती हैं भूख,
प्यास,
और ललक
तुम्हारे जेहन में।
मैं नहीं देता सुकून-
पर देता हूँ तुम्हें
सच का आईना,
और आत्मा का उद्घोष।
मेरे पाठकों,
मुझे है इसी बात का संतोष।

- नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन'


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सुरीली बांसुरी

नहीं मिले जो गुरु कोई तो,
बांस, बांसुरी न बन पाए।
चट्टान कुरूप ही रह जाए,
रूप मूर्ती का कैसे वो पाए ?
ढेला मिटटी का पड़ा रहे,
कोई रूप न वो ले पाए।
निर्जीव काठ के ठेलों पर,
नक्काशी कैसे उभर कर आये।
कंकर –पत्थर जोड़ सके न,
तो भवन कैसे बन पाए ?
घास फूस से अटी धरा पर,
फल ,फूल ,फसल कैसे उग पाए ?
व्यर्थ बहती समर्थ जलराशि की,
सामर्थ्य का दोहन कैसे हो पाए ?
मूढ़ ही रह जाता वो मानव,
जो गुरु संगत से बच जाए।
हे ईश्वर आपका बस इतना,
रहम मुझ पर हो जाए।
संवर जाए जीवन मेरा,
शरण गुरु की मुझे मिल जाए।
मुझ कुरूप अनगढ़ बांस की,
एक सुरीली बांसुरी बन जाए।


- धरम चंद धीमान


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सुनो!
जो तुम्हारी मुस्कान है
वो मेरी ही दी हुई है...

जानती थी
कोई वजह नहीं थी
तुम्हारी मुस्कराहट की
इस महाभारतीय परिदृश्य में...

जानती थी कि
जब तुम मुस्कराओगे
समस्त दैत्य संस्कृति
स्वतः नष्ट हो जाएगी...
पुन: आरूढ़ होगी धर्मसत्ता
बिना तुम्हारे शस्त्र उठाए...

जानती हूं मेरे बिना
कंटकाकीर्ण कर्तव्यपथ पर
तुम्हारी मुस्कान सरल नहीं
इसलिए अपनी मुस्कान
मैंने तुम्हें सौंप दी...


- मीनाक्षी शांकरी


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सितमगर

सितमगर तेरे सितम हो रहे बहुत,
रास्तों में काँटे तुम, बो रहे बहुत!

उम्मीद ए वफ़ा उनसे क्या करें हम,
गुमान में जो अपने खो रहे बहुत!

ज़माने को जगाना, कारवाँ है मेरा,
कुछ अंधेरगर्द नींद में सो रहे बहुत!

हर हाल में हँसना, सीखा है हमने,
गिरेबां में झाँक कर वो रो रहे बहुत!

तासीर तुम्हारी वाकई समझ से परे,
तभी गुनाहों को अपने ढो रहे बहुत!
सितमगर तुम सच में, हो रहे बहुत..


- आनन्द कुमार


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केहड़ी बरसात

राती जो आजकले घड़िए घड़िए नींद्र खुलदी
काना च बस बरखा री ही छेड़ सुनदी।
ये हल्की हल्की बरखा लगातार लगीरी
चुकणे रा नांव नी लैई करदी।
खड्डा नाले जोरा ने लगीरे बगणे
केते ल्हासे ता केते सड़का लगीरी बंद होणे।
चहुं तरफा बादला रा पईरा घेरा
सूरजा रा नांव नी बस नजर आई कराहं नेहरा।
म्हाणु डरी डरी रा लगी कराहां
पता नियां कधी जिंदगी हुई जाणी स्वाह।
माल पशु जो घा नी ल्याई सकदे
घरा ते बाहर निकलणे जो डरी करदे।
हुई सकां आदमियां रे कर्मा रा ये फल
आपु जो सुधारने पौंणा नहीं ता
खरा नहीं हुणा औणे वाला कल।


- विनोद वर्मा


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हर मोड़ पर दग़ा

हर मोड़ पर मिला मुझे बस दग़ा,
चेहरा हँसा, मगर दिल में था दग़ा।

वफ़ा की राह पर रखा मैंने क़दम,
सामने आई तो क्यों निकली दग़ा।

दुआ समझा जिसे, वो बन गई सज़ा,
मेरे मुक़द्दर की किताब में थी दग़ा।

रिश्तों की मेज़ पर सजता है वादा,
लेकिन परोसता है ज़हर-सी दग़ा।

सच की तलाश में निकला जो बशर,
हर मोड़ पर उसे रोकती रही दग़ा।

हर साँस कहती है- "मुझमें है दग़ा"।
‘शशि’ ये दुनिया अजीब है बहुत,


- शशि धर कुमार



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हे वासुदेव! आप इतने विद्वान और शक्तिशाली थे।
फिर भी एक परिवार के बीच महाभारत होने दिया!

ठीक है! सामान्य इंसान होने के नाते मैं समझ लेता हूं
कि आपको धर्म और अधर्म इंसानों को समझना था।
मगर हिंसा से धर्म-अधर्म को कैसे समझा जा सकता है ?

जिस युद्ध में अपनों को अपने ही हथियारों से मार रहे हो!
उसमें इंसान धर्म और अधर्म को कैसे समझेगा ?

अगर गलती पर अपनों की हत्या कर देना धर्म है,
तो केशव मुझे आपका हिंसात्मक धर्म नहीं चाहिए।


- दीपक कोहली



*****