देखो फिर पचपन का होकर,
बचपन आया।
गिर कर उठाना,
फिर सम्भल कर चलना आया।
छूटती जा रही,सब मोह और माया।
साथ न दे रही अब मेरी काया।
बच्चे रखते अब मेरा खयाल,
घड़ी घड़ी पूछा करते मेरा हाल।
चश्मे,थैले, कलम, छाते, रुमाल
अब भूलने लगे हैं,
थोडा चलते, थोड़ा ठहरते,
सांसे अब फूलने लगे है।
जो है मना, वही खाता हूं,
अब जल्दी, थक जाता हु।
शाम ढलते ही, सो जाता हूं,
पंछियों से पहले, जग जाता हूं।
न रहती कोई फ़िक्र,बस तमन्ना यही
कि हर बात पर हो मेरी जिक्र।
अब कुछ नहीं छुपा पाता हूं,
सब कुछ सरलता से बता जाता हूं।
बेटी अब रखती ,मेरी मां सा खयाल,
परिवार में अब नहीं,पूछता कोई सवाल।
दुआ बस रब से इतनी की ,रहे
सब खुशहाल।
- रौशन कुमार झा

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