जात-पांत के जाल में, उलझा हर इंसान।
किंकर्तव्यविमूढ़ है, खो बैठा निज ज्ञान।।
बोले जो हृदय अगूढ़, सीधा सादा भाव।
सत्य-वचन में ताक़तें, झूठ न पाए ठाव।।
नरेन्द्र खोजे सत्य को, रखे न छद्म विचार।
अगूढ़ मन से बोलता, करे विवेक प्रसार।।
थाम ऊँगली चल पड़ा, जीवन की हर चाल।
साया जैसे साथ थे, पिता सरीखी ढाल।।
बोल उठी हर शोषिता, करे भीम पर नाज़।
संविधान से बल मिला, बदली काया आज।।
बुद्ध न होते आज तो, बुझती न यह पीर।
दुख की जो पहचान कर, बाँटी सबमें नीर।।
पीड़ा देख भटक गए, छोड़ दिए सब पंथ।
बुद्ध बने करुणा-धरा, शांति-धर्म के ग्रंथ।।
पूँछ उठी ये लेखनी , लिए सार का केन्द्र।
कविता लिखे नरेन्द्र को, कि कविता को नरेन्द्र।।
सौ कह दे जो एक में, रहे भाव में नित्य।
ताल-छन्द लय-गेय की,धरा वही साहित्य।।
विद्या से कुछ हो नहीं, विनय बिना जो जाय।
जाके मन में दंभ है, ताको गुरू न भाय।।
- नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन'

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