जीवन को भौतिक अस्तित्व में लाने के लिए दो बिंदु या दो सिरों का होना अनिवार्य है। जब ये दो सिरे नही तो केवल अथाह अनन्त शून्य होता है, जैसे अंतरिक्ष।
आत्मा की जीवन को महसूस करने की वासना।
आत्मा ने देह को वस्त्र की तरह ओढ़ा।
इंद्रियों के साथ देह बनी उपकरण एवं माध्यम।
शुरू हुई एक यात्रा।
इन दो सिरों के बहुत से नाम हो सकते हैं।
अच्छा, बुरा/अंधेरा, उजाला/सुख, दुख/झूठा, सच्चा (कल्पना,यथार्थ)/जन्म, मृत्यु/सूक्ष्म, विकराल आदि आदि.. याद रहे ये सब मनुष्य द्वारा दिए गए "नाम" भर हैं भाषा के शब्द स्वर।
आत्मा का निजी अनुभव ही आभास है, कामना है, वासना है और ध्येय।
निजी अनुभव को भी जिस स्थिति में मनुष्य है, उस सिरे के आसपास का अनुपात अर्थात बुरा, कम बुरा और अच्छा, ज़्यादा अच्छा इत्यादि ही तय करेगा।
इन्हीं दो सिरों के बीच की यात्रा 'जीवन' हैं।
इन्हीं दो सिरों के बीच सारे 'अनुभव आभास' हैं।
इन्हीं दो सिरों के बीच कहीं 'अवसर और चुनाव' हैं।
इन्हीं दो सिरों के बीच हरपल झूलता, जूझता मनुष्य है।
देह रूपी मनुष्य के पास इन सिरों के आसपास के अनुपात मात्र हैं, जिसमें से यथा शक्ति, बुद्धि, सद्बुद्धि, वृत्ति और परिस्थिति अनुरूप वह चुनाव करता है। चुनाव करना उसकी नियति है, क्योंकि चुनाव न करना भी जड़वत खड़े हो रुक जाना है। यात्रा घड़ी के कांटों सी चलती रहती है मनुष्य चले या न चले।
इन दो सिरों के बीच हम तिनके मात्र भाग कर, नाच कर, रो कर, हँस कर, दुखी होकर या हार मान कर जैसे भी चलना चाहे, चल लें। सृष्टि को कोई फ़र्क नही पड़ता।
इतना बड़ा ब्रह्मांड और हम तिनका मात्र। तिनका यदि अहाँकारी हो स्वयं को चट्टान समझ यदि विरोध में उतरे भी तो, उस चट्टान रूपी अहँकार से न केवल स्वयं को भारी करेगा, बल्कि स्वयं को आहत ही करेगा। अनवरत यात्रा में किसी सिरे के पास वो चट्टान बना पड़ा रहेगा और समय समाप्ति पर बन जाएगा धूल का कण।
तो धूल के कण के समान हल्के हो उड़ना और हवा की गति में, उसके वेग में स्वयं को समर्पित कर उड़ते रहना कहीं ज़्यादा शांति दायक व आंनद दायक हो सकता है।
या फिर करना सीख ले उस भीतर बैठे आत्म से वार्तालाप। जो लाया है तुम्हें अपनी किसी लालसा, मंशा और कार्मिक फल के अंतर्गत।
और अच्छे बुरे जो केवल शब्द और अनुपात हैं, उसके फेर में पड़ने से बचना ही मुक्ति है। मैं हूँ इस यात्रा में क्या केवल एक आकस्मिक राही या सुनियोजित राही ?
मौन में बैठ कभी जाँचना और कभी संवाद करना आत्मा से...
- स्नेहा देव

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