साहित्य चक्र

08 July 2025

ग्यारह कवियों की ग्यारह कालजयी कविताएँ पढ़िए



खंडहरपन

फिर तबाही का मंजर
हर तरफ छाने लगा
गम का दरिया
फिर चारों ओर बहने लगा है।

करते थे जो आधुनिकता का दावा
अपने वहम में
पुरातत्व में उनका
अस्तित्व फिर खोने लगा है।

मानने थे जो अपनी सत्ता
आसमान से भी ऊंची
पर्वतों के नीचे उनका
अहम दमन होने लगा है।

करते थे जो परिहास
औरो की कमियों पर
आज उनके दर्प पर
कुदरत का अट्टहास होने लगा है।


                                                   - डॉ.राजीव डोगरा


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छोड़ दे मोह माया कर ले किनारा

कभी सकूं से बैठ कर मिटा लीजिये 

अपने जीवन भर की थकान
न जाने कब आ जाये मालिक का बुलावा
खाली करवा ले अपना मकान

अपना ही समझते रहे उम्र भर
था जो किसी दूसरे का किराए का मकान
किराए पर आगे दे दिया उसको भी
बसा लिए उसमें ईर्ष्या अहंकार और कड़बी जुबान

थोड़ी सी बात पर निकाल लेते तीर कमान
दूसरों को सुखी देख कर हो जाते परेशान
सामने निकल रहा हो जब इंसानियत का जनाज़ा
खुलती नहीं बन्द हो जाती है जुबान

भागम भाग रही जिंदगी भर
मिला न एक पल भी चैन
अंत समय जब आया पास
क्यों सजल हो रहे तेरे नैन

गोरी चिट्टी चमड़ी जल जाएगी
हड्डियों की तेरी बन जाएगी राख
मर मर के कमाई जो दौलत तूने
जाएगी न साथ तेरे खाली होंगे हाथ

दूसरों के लिए जिया बहुत
कुछ पल अपने लिए भी जी ले
छोड़ दे मोह माया कर ले किनारा
करना मुश्किल है पर कड़वा घूंट पी ले


                                                    - रवींद्र कुमार शर्मा


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अंतरंगता की परिभाषा

अंतरंगता... ये केवल एक छुअन नहीं होती,
न ही शरीरों के बीच की कोई दूरी मिटाना।
ये वो मौन क्षण होते हैं
जब दो आत्माएँ बिना किसी भय के,
अपने सच को एक-दूसरे के सामने रखती हैं।
वो पल, जब तुम अपनी टूटी हुई उम्मीदें,
बिखरे हुए ख्वाब,और अधूरी बातों को
किसी के सामने रख पाते हो
बिना इस डर के कि वो तुम्हें जज करेगा।
जब कोई तुम्हारे डर को सुनता है...
नहीं, बस सुनता नहीं ,उसे महसूस करता है।
जब वो तुम्हारे अंदर की हलचल
बिना बोले समझ जाता है।
अंतरंगता तब होती है,
जब स्पर्श की ज़रूरत नहीं पड़ती...
क्योंकि आत्माएँ पहले ही
एक दूसरे को आलिंगन दे चुकी होती हैं।
जहां मौन संवाद बन जाता है,
और आंखें एक-दूसरे की कहानियाँ पढ़ लेती हैं।
जहां उपस्थिति किसी दवा से ज़्यादा राहत देती है।
क्योंकि अंतरंगता...शरीर से नहीं,
दिल और आत्मा की ईमानदारी से जन्म लेती है।

- डॉ. सारिका ठाकुर 'जागृति'


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क्या करोगे

बताओ और कितने सितम करोगे,
चाहने वालों को यूँ ही कम करोगे!

कब तक बर्दाश्त करें ये बेरुखी,
कौन-कौन से अभी जुलम करोगे!

ख़ुशी के बदले ग़म देने वाले,
तुम ज़िंदगी भर हमें तंग करोगे!
फिर ना कहना हम बेवफ़ा निकले,
जब बात - बात पर जंग करोगे!
हया काफ़ूर करके ए पर्दानशीं,
अब ना किसी की शरम करोगे!
साथ छोड़ना मज़बूरी न बन जाए,
जो तुम इतना उधम करोगे!
जन्मों का वादा करने वाले सनम,
रिश्ता रखोगे या फिर ख़तम करोगे।

- आनन्द कुमार

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संहार ही संहार

कैसा फैला है ये ख़ौफ़नाक मंजर,
हर तरफ खामोश सिसकियों की भरमार है।

अपने पराए अब सब गुम हैं 
वापसी का झूठा इंतजार है।

सहारे भी खुद लापता हो गए,
इस बेबसी में हर कोई लाचार है।

लहू पसीना एक कर जो बनाए थे आशियाने,
वहां अब आस का भी निशान ढूंढना बेकार है।

कहीं बच्चा माँ की गोद का इंतजार कर रहा है,
और कहीं बूढी पथराई आंखे रो रोकर बेज़ार हैं।

कटी धरा ,छाती पर उसके जख्मों की भरमार है,
सब थे सुखी,धरा के सीने में भोंकी कटार है।

किसी की गलती कौन इसका जिम्मेदार है,
पर जो बिजली गिरी उसके सब हिस्सेदार हैं।

हक छीना है हमने बेरहमी से कुदरत का,
अब कुदरत खुद हिसाब करने को बेताब है।

आधुनिकता आज भी मानवता की कर्ज़दार है,
गर अब नहीं संभले तो फिर संहार ही संहार है।


- राज कुमार कौंडल

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दबा लम्हा कोई जब कभी उभर आता है
बन्द पलकों में एक समंदर उतर आता है

खटकने लगते हैं हसीन वो लम्हें सभी
जिन्हें याद कर अक्सर दिन संभर जाता है

जिक्र में मेरे अब वो ही क्यों शामिल न रहा
दिल में रहने से जिनके होठों पे असर आता है

यही दुनियां जो खूबसूरत लगती थी कभी
अब उजड़ा गुलशन वीरान नज़र आता है

अब क़ैद हो गई "नरेन्द्र" दिल की हसरतें सभी
मचलती उमंगों को अब कहां सबर आता है

दबा लम्हा कोई जब कभी उभर आता है
मेरी पलकों में एक समंदर उतर आता।


- नरेन्द्र सोनकर बरेली

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जैसे खरीदी थी रद्दी से चुस्की ,
जैसे खरीदा था बालों से चूरन,
फिर से जमा करके कांच की शीशी
काश ! खरीदूं मैं फिर से बचपन ।
मैं फिर से बचपन .....
बहुत याद आती हैं वो सारी बातें ,
वो बाबा की लाठी, वो अम्मा की डांटे,
उफ्फ ! मेरी वो शैतानियां...
गुस्से में मां जब पटकती थी बर्तन ,
काश ! खरीदूं मैं फिर से बचपन ।
मैं फिर से बचपन......
गेहूं के बदले दे दे कोई अब ,
वो खट्टी सी इमली , वो मीठी सी गोली
अब भी मैंने संभाली हुई है ,
मन में बचपन के सपनों की कतरन ,
काश ! खरीदूं मैं फिर से बचपन ,
मैं फिर से बचपन ....
सिल पर पीसकर फूल मैं मोगरे के ,
खुशबू को महसूस करती रही ,
समझ में ना आई कहानी अजब थी ,
वो कैसी थी खुशबू वो कैसी थी उलझन ?
काश ! खरीदूं मैं फिर से बचपन ।
मैं फिर से बचपन....
खरीदे थे सखियों से मिट्टी के टुकड़े ,
बनाते रहे थे टूटी चप्पल से गाड़ी ,
बनाया कभी मिट्टी का महल था ,
नवाबों के जैसा था अपना जीवन ,
काश ! खरीदूं मैं फिर से बचपन
मैं फिर से बचपन....

- मंजू सागर


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बेरहम बेगैरत है दुनिया 
रख दूसरे के कंधे तलवार 
वार करती है ये दुनिया।
कहो सच और स्पष्ट तो
इल्ज़ाम लगाती है दुनिया
लेकर आड़ झूठ की
बदनाम करती है ये दुनिया।
जब तक मतलब है
दोस्ती रखती है दुनिया
बाद दूध से मक्खीजैसे निकाल 
फेंक देती है ये दुनिया।
अपना ही सिक्का खोटा हो तो 
फायदा उठाती है दुनिया
बाद घर का न घाट का रहता
सिक्का जब उछालती है ये दुनिया।
झूठ के पांव लंबे नहीं होते
रखती नज़र है दुनिया
सच को आंच नहीं चाहे
लाख कोशिश करे ये दुनिया।
गुरूर वो करे पैसों का
जिसको तौलती है दुनिया
ईमानदारी बड़ी दौलत है
ज़मीर पे जिसके खड़ी है ये दुनिया।


- कांता शर्मा 

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सावन को आने दो, बूँदों को गाने दो,
मन के सूने कोनों में हरियाली छाने दो।

भीगी धूप में खिलती मुस्कानें हों,
तन क्या, मन भी तनिक भीग जाने दो।

झूले की पींगों में बचपन पुकारे,
मेंहदी की ख़ुशबू से सपने सँवारे।
घुँघुरुओं की छम-छम में राग बरसने दो,
छज्जों से उतरते गीतों को सजने दो।

कजरी की तान में व्यथा है छिपी,
प्रेमिका की आँखों में सावन की नमी।
संदेश हो पिया का या हो रूठी बहार,
हर बूँद कहे – "अब लौट आओ यार।"

धरती के माथे पर बूंदों का तिलक,
पत्तों पे लहराए आस्था की झलक।
पेड़ कहें – "थोड़ी देर और ठहरो",
बादल कहें – "अब अश्रु बन बहो।"

सावन को आने दो, भीतर उतरने दो,
भीतर के मरुथल को हरियाने दो।
इस बार सिर्फ़ छाते मत खोलो,
दिल के दरवाज़े भी खुल जाने दो।


- प्रियंका सौरभ


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बारिश की बूंदे किराए पर रहने आयी।
चार  मास  का यह सफर रोज नया रंग दिखलाएगा
कभी तेज , तो कभी मधम समा संग छायेगा

रात की मीठास और दिन का अ़ंधेरा घना बदरा
और फिर खिलती धूप घर कर जाएगा।

सड़के पेड़ पौधे नए होकर महकेंगे यह वन भी
पुराने नगमे और हमसफर का दर्द याद आयेगा
यह मौसम समा, साथ-साथ गायेगा।
गीत संगीत के शब्द मन को जकड़ लेंगे कही
लिपटकर रो लेंगे दो प्रेमी , सूनी गपशप सही
बारिश की बूंदे किराए पर रहने आयी
बारिश की बूंदे किराए पर रहने आयीं।

  - रोहित

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क्षितिज के पार जाना है
मुझे अब क्षितिज के पार जाना है,
कितना उड़ सकती हूं मैं ,
अब ये मुझको आजमाना है।
सौलह श्रृंगार, सदियों किए मैंने,
शिक्षा को अब, सत्रहवां श्रृंगार बनाना है,
हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है।
नारी जो शक्ति स्वरूपा थीं सदियों से,
क्यों बंधी रूढ़ियों में, क्यों जकड़ी बेड़ियों में,
ये पता अब मुझे लगाना है,
हां अब मुझे क्षितिज के पार जाना है।
कोमल मन और कोमल तन,
जो दिया, नारी को ईश्वर ने,
नहीं कमजोर दिए निश्चय,
यही सबको दिखाना है,
हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है।
लाचार नहीं हूं मैं,मन मेरा कोमल है ,
संकल्प है ये मेरा, सुंदर संसार बसाना है,
कुछ झुककर, कुछ उठकर, परिवार चलाना है,
अबला नहीं हूं मैं,बस ये बतलाना है।
हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है।
श्रृंगार नहीं सौलह, शिक्षा श्रृंगार सत्रहवां है,
सत्रहवें श्रृंगार से अब खुद को सजाना है,
सम्मान के बदले में, सम्मान ही पाना है,
हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है।


- कंचन चौहान

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