ये कैसा रिश्ता
सात फेरों का सात जन्मों
का रिश्ता माना जाता
पर आज इस रिश्ते में
खोट जरूर नजर आता।
सात जन्म तो क्या निभाने
एक ही जन्म लग गया है
अब मौत से रूबरू करवाने।
पत्नी अर्धांगिनी मानी जाती
उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े
कर फ्रीज में डाली है जाती।
प्रेम विवाह कर रिश्ता बनाया जाता
फिर गैर मर्द से रिश्ता बनाकर
पति का क़त्ल करवाया जाता।
पति के टुकड़े टुकड़े कर नीले ड्रम में डाले
स्वयं गैर मर्द संग कारनामें किए काले।
हनीमून मनाने निकले घर से जब
पुराने प्रेमी से क़त्ल करवाकर सांस ली तब।
पति परमेश्वर था माना जाता
आज तो उसके टुकड़ों को टाइलों
के नीचे पत्नी द्वारा दबाया है जाता।
बाईक पर जब घूमने है निकले
सैल्फी के बहाने पति को नदी में धका
देकर बोली ये तो स्वयं है फिसले।
दोनों में थोड़ी कहा-सुनी हुई जब
पत्नी ने पति की जीभ काट ली तब।
नाग पंचमी मनाने पति संग मायके आई
फरार हुई प्रेमी संग फिर चैन पाई।
जो एक दूजे के होते थे प्रेम में दिवानें
आज एक दूजे का खून करके धूम लगे हैं मचानें ।
आखिर ये रिश्ता इतना बिगड़ कैसे गया
हो सकता है इसमें कोई तीसरा आ गया।
इस रिश्ते को बचाने की मुहिम चलानी होगी
अन्यथा एक बड़ी त्रासदी झेलनी होगी।
- विनोद वर्मा
*****
गुलाबी शामें, सुनहरी रातें
दुनिया मोहब्बत के रंगों से सजी है
फिर भी हर नज़ारा उधार
सा लगता है।
भीगती बारिश, चमकती बूँदें,
गुलाबी शामें, सुनहरी रातें,
सब उसकी यादों में,
उसके बिना अधूरे से लगते हैं।
चाँद तारे की महफ़िलें,
हवाओं की सिहरन,
उसकी मुस्कान न हो तो,
सब सूना-सूना सा है।
दिल हर पल पूछता है ,
ये मंज़र उदास क्यों है?
जवाब सिर्फ धड़कनों
में छुपा होता है।
मोहब्बत पास हो तो हर
मौसम ख़ूबसूरत,
वो न हो तो हर नज़र बेजान।
यही है इश्क़ की तड़प,
जुदाई में हर ख़ुशी बेरंग,
फिर भी दिल में उम्मीद की
किरण रहती है।
कभी ये बरसात, ये हवा,
फिर से उसके साथ हसीन हो जाए।
ये तेरी यादों का मौसम है,
हर मंज़र तेरा नाम पुकारता है।
हर लफ़्ज़ मेरा तुझमें खो जाता है।
- डॉ. मुश्ताक अहमद
*****
जीवन की चाल
वो हर मोड़ पर बस फिसलते रहे,
हम सच्चाई के साथ चलते रहे।
वो माया के प्याले सँभालते रहे,
हम ख़्वाबों में सच्चाई पलते रहे।
वो शोहरत के पीछे मचलते रहे,
हम सुकूनों में खुद को बदलते रहे।
वो रिश्तों की दीवार छलते रहे,
हम टूटे हुए दिल भी मलते रहे।
वो हर दिन नया ज़ख़्म छलते रहे,
हम हर दर्द में गीत गुनगुनाते रहे।
वो दुनिया के रंगों में ढलते रहे,
हम उजली हकीकत में जलते रहे।
- शशि धर कुमार
*****
मैं ही मैं हूं
जब तुम्हें मैं कहीं दिखाई ना दूं ,
हर तरफ खामोशी हो
और मैं कहीं सुनाई ना दूं !
सोचकर देखना कि मैं नहीं हूं
मैं कहीं नहीं हूं .......
महसूस करना मुझे ...
हर कोने में , तस्वीर में , अपनी आंखों में ...
दर्पण में , बीती यादों की तह में ...
पलक मत झपकना ... वरना गिर जाऊंगी
आंसू बनकर तुम्हारे पहलू में ....
उस आंसू की खुशबू महसूस करना ...
या रोककर उसमें देखना सतरंगी पल
कुछ अनछुए अहसास ....
सोचकर देखना कि मैं नहीं हूं
मैं कहीं नहीं हूं .....
मुश्किल लगने लगेंगी राहें ...
और मंजिल.... दूर ...बहुत दूर ....
एक अनजाना सा डर रोकने लगेगा सांसें
पर देखना कि मैं हूं ...
यही कहीं आसपास ....
जहां भी महसूस कर सको
मेरी उपस्थिति ...... मैं वहीं हूं
.... मैं हूं .... हर जगह हूं....
ख्याल में .... खुशबू में आंखों में ....
सिर्फ मैं हूं .... मैं ही मैं हूं .....
- मंजू सागर
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संशय
हां मैं लिखता हूं
तुम्हारी मुस्कुराहट में
अपना वजूद लिखता हूं।
हां मैं देखता हूं
तुम्हारी छुपती निगाहों में
अपना अस्तित्व देखता हूं।
हां मैं मुस्कुराता हूं
तुम्हारी स्मृति में खोकर
हृदय तल से मुस्काता हूं।
हां मैं डरता हूं
एक बेनाम रिश्ते को
एक नाम देने से डरता हूं।
- डॉ. राजीव डोगरा
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वो घर पुराना
वो मेरा पुराना घर,
थे बेपरवाह,नहीं था डर।
सालों बाद जब पड़े कदम,
तैर गए वो सारे मंजर।
आने लगी हँसी की आवाज़ें,
कुछ ढूँढ रही थीं मेरी निगाहें।
सब कुछ तो मिला मगर,
फीकी पड़ गईं अब मुस्कुराहटें।
देखो दीवारें भी रो पड़ीं,
बंद हुई वो भी घड़ी।
किसी आशा से तकती थी जो,
इंतज़ार में यूँ ही खड़ी।
सजता था चूल्हा उसी ओर,
माँ जगाती "उठ, हो गई भोर!"
चारों तरफ फैला वीराना,
नहीं रहा अब कोई भी शोर।
अब तो हैं सबके अलग कमरे,
कौन उठाए किसी के नखरे?
पहले रहते थे सब एकत्रित,
आज सब लगते बिखरे-बिखरे।
अबकी मनाएँ वहीं त्योहार,
सजाएँ फिर से घर-आँगन-द्वार।
नींव न बिखरे कभी भी फिर,
इनका हम पर बड़ा उपकार।
- सविता सिंह मीरा
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पतवार
छीन लेता है भले कुछ रोज़ ये संसार भी,
मगर सीने में दबी इक मौन कमान है।
हार कर हर मोड़ पर सीखा यही मैंने,
हर शिकस्ते-ज़िंदगी में छुपा जहान है।
सफ़र लम्बा है, मगर रुकता नहीं पांव,
थक चले जिस्म, दिल में न कोई थकान है।
जिसको लोग समझे हैं बस इक मुसाफ़िर,
उसके हौसलों में छुपी पूरी जान है।
ज़ख्म खाकर भी जो मुस्काता रहा हर रोज़,
उसके जज़्बों को मेरा सच्चा सम्मान है।
कितने तो टूटे मगर फिर भी न बिखरे,
दिल के तहख़ानों में बचे कुछ अरमान है।
डूबते हैं सब मगर बचते वही अक्सर,
जिनके पास आख़िरी कोई पतवार है।
- शशि धर कुमार
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जानता हूं मैं,तुम्हारा प्रेम भी
सच्चा है, परअंतर है कुछ,
हम दोनों के,प्रेम की परिभाषा में,
मेरे लिए,किसी दिल के
एक कोने का, किसी दूसरे दिल के
एक कोने से, बंध जाना,
अनदेखी गिरह से,प्रेम है !
तुम्हारे लिए,एक देह का,
दूसरी देह से,मात्र स्पर्श ही
प्रेम है! माना दोनों ही
प्रेम के रूप हैं,
लेकिन,
तुम देखना, मेरा प्रेम
बढ़ेगा, बढ़ता रहेगा और बना रहेगा,
अनंत-काल तक, पर तुम्हारा प्रेम !
शायद,धुंधला पड़ जाएगा
समय के साथ।
पता है,ढाई अक्षर के,
इस शब्द में,एक और एक अक्षर,
का जुड़ना,बताता है कि,
कि स्वीकार कर लिया है,
मैंने प्रेम किया तुम्हारी
परिभाषा को।
पर वो आधा अक्षर,अभी अधूरा ही है,
जो मेरे प्रेम की,
परिभाषा है,
साथ यूं ही खड़ा है
बस इस उम्मीद में कि शायद,
इसे तुम पूरा करोगे,
किसी दिन।
- विकास कुमार शुक्ल
*****
कहासुनी
मन से आगे बढ़ना सीखो !
मन से मिलना सीखो!
आपस में क्या लड़ना ?
मन न मिले तो दूर हो जाओ !
मन ही मन क्यों किसी को कोसना ?
माटी का खिलौना हो, माटी में है मिलना,
किस पर इतना अभिमान करना,
क्या है मेरा इस जग में ?
बस मोह का बन्धन है,
यहाँ सुलझे हुए भी उलझे हुए हैं,
दो दिन की है जिंदगानी,
तू तू मैं मैं क्यों किसी से करना ?
तुमने कहा मैंने सुना,
मैंने कहा तुमने सुना,
मन में गाँठ मत रखना,
कहासुनी हो गई तो,
बात को दिल से मत लेना,
अपनों से क्यों झगड़ना ?
प्रेम से मिलकर रहना सीखो!
- चेतना सिंह
मन से आगे बढ़ना सीखो !
मन से मिलना सीखो!
आपस में क्या लड़ना ?
मन न मिले तो दूर हो जाओ !
मन ही मन क्यों किसी को कोसना ?
माटी का खिलौना हो, माटी में है मिलना,
किस पर इतना अभिमान करना,
क्या है मेरा इस जग में ?
बस मोह का बन्धन है,
यहाँ सुलझे हुए भी उलझे हुए हैं,
दो दिन की है जिंदगानी,
तू तू मैं मैं क्यों किसी से करना ?
तुमने कहा मैंने सुना,
मैंने कहा तुमने सुना,
मन में गाँठ मत रखना,
कहासुनी हो गई तो,
बात को दिल से मत लेना,
अपनों से क्यों झगड़ना ?
प्रेम से मिलकर रहना सीखो!
- चेतना सिंह
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