माँ की पुकार
पलकों के आँचल में जिसे छुपाया,
जीवन की हर धूप से जिसे बचाया।
खुद जलकर छाया बन गई,
अनुभव की घुट्टी दिन-रात पिलाई।
नौ माह की पीड़ा को मुस्कुराकर सहा,
नींदों को त्यागकर तेरे सपनों को पंख दिया।
उँगली पकड़ चलना सिखाया,
हर ठोकर पे खुद को गिरा, तुझे संभाला।
'माँ' पहला शब्द सुनने को तरसते कानों ने
जब सुना — तो जैसे जीवन ने गीत गाया।
तेरे हर दर्द की दवा बनी,
तेरे अनकहे जज़्बातों को भी समझा, बिना कहे।
तेरी तोतली बोली जब गूंजती,
हर क्षण एक कविता सी लगती।
बच्चे से इंसान बनाया तुझे,
संस्कारों की धूप में नहलाया तुझे।
तेरा परिवार रचाया,
हर दुःख का सामना कर सुखी तुझे बनाया।
पर आज तूने ही मुझे…
बुद्ध आश्रम का रास्ता दिखलाया।
जिस ममता ने तुझे जन्म दिया,
उसी को आज तूने तज दिया।
कभी सोच, तेरी मुस्कान के पीछे
कितने आँसू छुपाए मैंने… सिर्फ तेरे लिए।
- निशि धल सामल
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विस्तार दे दो
विज्ञान की परिधि में बंधी मेरी काया
सांसों की तारों से ही घिरी थी माया ।
संबधो के घेरों से जब बांध दिया तुमने
कितनी दूर हाय मुझे कर दिया था तुमने।
विस्मृत मन कैसे पहचानें विस्तृत को,
अंतर तार जुड़े से थे तुमसे फिर भी
जग संबधो के दान को न कर सकी,
उपहेलना,जो तुमने मुझे किया था समर्पित
विस्तृत तुम्हारी दृष्टि देखती थी मुझको,
विशाल तेरे हाथ सदा पकड़ ते थे मुझको
मेरी राह के हर कांटों को थे सुलझाते।
कुछ न कह कर भी वह सांनिध्य पा जाते
ऐसे ही जीवन की राह में चलते चलते।
पहुंची हूं मैं उस मंजिल जहां तुम रहते।
पर फिर भी क्यों दूरी तुम मुझसे बरतते।
क्यों नहीं तुम गले लग मुझको पागल करते
मै भी चाहती हूं, तुम्हारे प्रेम में पागल होना
सारी इच्छाओं की तिलांजलि दे तुममें खोना।
मेरे लिए भले न हो सरल तुमको पाना।
पर तुम्हें तो आता है सागर सा प्रेम बिखराना।
विखरा दो अपनी प्रेम की मोती मम अंचल
नैन मेरे भी तेरे दर्शन को हो जाए विकल।
मीरा, राधा,रुकमणी बन न पाऊं भले ही मै,
पर शबरी सा प्रेमी बन हो जाऊं पागल।
- रत्ना बापुली
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"अब सिवा अंबेडकर के रहनुमा कोई नहीं"
कारवाॅं कोई नहीं है , रास्ता कोई नहीं,
अब सिवा अंबेडकर के रहनुमा कोई नहीं।
छाॅंव में बाबा ने लाकर तब बिठाया था हमें,
धूप से बचने का जब था आसरा कोई नहीं।
दासता की दास्ताॅं पढ़ते तो तुम भी जानते,
दर्द में डूबी हुई ऐसी, कथा कोई नहीं।
बस तुम्हारे दम से 'बाबा' रौशनी मिलती गयी,
रौशनी का वर्ना देता था पता कोई नहीं।
आदमी में आदमीयत है तो वो इंसान है,
है जो मानवता तो फिर छोटा-बड़ा कोई नहीं।
बस यही एक दाग़ है इंसानियत के नाम पर,
हैं जहाॅं में सब बराबर, मानता कोई नहीं।
आपकी ऊॅंचाइयों तक कोई क्या जा पाएगा,
आप जैसा इस जमीं पर, दूसरा कोई नहीं।
- आर.पी. सोनकर तल्ख़ 'मेहनाजपुरी'
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मन विकल
सघन तम में क्यों मन विकल,
नयन सूखते कभी सजल,
निज उर की थाह न पाती,
अंजन मसि से लिखूँ मैं पाती।
तुम मुझ में और मैं हूँ तुममें,
ज्यों कृष्ण राधामय राधा कृष्ण मय,
क्यों पल-पल अब यह समझाती,
हम तो ठहरे एक दूजे के थाती,
अंजन मसि से लिखूँ मैं पाती।
सोहे ना तनिक कर्णफूल,
श्रृंगार लागे है जैसे शूल,
मोम से बँधी हुई एक बाती,
उष्मा से तेरे ही पिघल जाती,
अंजन मसि से लिखूं मैं पाती।
हर आहट से चौंक पडूँ,
कभी भागूँ कभी लौट पडूँ,
कुंतल काली मुझे भरमाती,
अठखेलियां इसकी तनिक न भाती,
आनन को मेरे है तड़पाती,
अंजन मसि से लिखूँ मैं पाती।
- सविता सिंह मीरा
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अनूठा व्यक्तित्व
जो देखना चाहते हैं
मेरी तबाही का मंजर
उनको बता दूं
मैं सर्वदा बहने वाला हूं
पर तुम शाश्वत न रहने वाले हो।
जो देखना चाहते हैं
मेरी आंखों में आंसू
उनको बता दूँ
मैं इस आब-ए-चश्म में
डूब कर ही तैरना सीखा है।
जो देखना चाहते हैं
गम-ए-हयात में मुझे डूबता हुआ
उनको बता दूँ
इसी समुद्र में विजय की नौका पर
हर मंजिल फ़तह करना सीखा है।
जो देखना चाहते हैं
मुझे दूसरों के आगे नत हुआ
उनको बता दूँ
माँ काली के आगे सिर झुका कर ही
सिर उठाकर जीना सीखा है।
- डॉ.राजीव डोगरा
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मत किसी के दिल को यूं ही दुखाना
मत किसी के दिल को यूं ही दुखाना
हमेशा मीठा बोलना औरों के काम आना
अमीरों को देख कर रुख बदल लेते हैं लोग
दुखियों की करना सेवा गरीबों को मत सताना
करना ऐसा नेक काम याद जो रखे ज़माना
जरूरतमंद की करना सहायता मत बनाना कोई बहाना
चेहरे पर यदि किसी के मुस्कुराहट ला सको
इससे बढ़कर नहीं दुनियां का कोई खज़ाना
इतना भी मत उलझना किसी उलझन में
कि समझ न आये लगे सिर चकराना
पैदा होता है हल सभी उलझनों का उलझनों के साथ
शांत मन से सोचना तब सुलझाना
नए लोगों से भी रखना वास्ता अपना
लेकिन पुरानों को भी मत भूल जाना
पुरानी चीजों को फेंक देते है आजकल लोग
नया नौ दिन याद रखना सौ दिन चलता है पुराना
मिट्टी हो जाएगा हर जीव इस दुनियां का
ढूंढता फिर रहा है फिर भी खज़ाना
मृगतृष्णा है जो कभी नहीं भरती
सबको पता है साथ कुछ नहीं जाना
- रवींद्र कुमार शर्मा
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जिन्दगी थोड़ा रुक - रुक कर चलना,
अभी तो मेरे बहुत से, फर्ज निभाना बाकी है।
जीवन भर सभी को अपना समजा,
अभी तो यह मेरा सारा, भर्म मिटाना बाकी हैं।
अपने तो कुछ घेरों से रिश्ता बनाया,
हमें उन सभी रिश्तों मे, शर्म छिपाना बाकी हैं।
अभी - अभी तो मेने शुरू किया चलना,
वो सारे सुख - दुःख के, कर्ज चुकाना बाकी है।
मन्दिर - मजिद मे जिस को पहचाना,
इस मानवता को वह, धर्म फैलाना बाकी हैं।
जिन - जिन की दुवाओ से मैने जिवन पाया,
उन बिन माँगी दुवाओ पर, कर्म निभाना बाकी हैं।
अपने जिन हाथों से उसने सिंदूर मिटाया,
उनकी आँखों में मुझको वह, दर्द देखाना बाकी हैं
- अनिल चौबीसा
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