साहित्य चक्र

21 July 2025

कविता- प्रेम था या छल कोई




कभी उसने बोला,
चाहते हैं तुमको।
कभी उसने बोला,
तेरे बिन कहां हम।

कभी कहा था उसने,
आवाज में खनक है तेरी।
कोई भी पागल हो जाए,
क्या विसात मेरी।

कभी उसने बोला,
याद आती तेरी।
कभी उसने बोला,
दिल चाहता तुझको।

कभी कहा था उसने,
मेरा सरनेम तेरा।
कभी फिर कहा,
तुम बस हो मेरी।

कभी उसने जताया,
आखिरी मुहब्बत मैं उसकी।
कभी ये बतलाया,
तुम मेरी जिंदगी।

करीब दिल में आकर,
रूह को मेरे छू गया।
इश्क की तड़प,
मुझमें वो जगा गया।

फिर वक्त बदला,
न जाने हुआ क्या ?
अंदाज बदला,
सब कुछ है बदला।

मेरा बोलना,
उसको परेशान करता।
याद नहीं आती,
अब वो जताता।

बातों से वो फिर गया,
तकलीफ उसे होने लगी।
बात कम करो,
अब वो कहने लगा।

झूठ बोलने लगा,
बहाने बनाने लगा।
पूछो तो वक्त नहीं,
अब ये जताने लगा।

समझ कर भी नासमझ,
अब वो होने लगा।
तुम मेरे जीवन में,
हस्तक्षेप न करना,
अब ये कहने लगा।

तुम मेरा न देखो,
मैं खुद का देख लूंगा।
फिर सब याद आने लगा,
मुझे वो विसरा गया।

रिश्ते, नाते, जिम्मेदारियां,
सब की दुहाई देने लगा।
मेरे करीब आकर,
मुझसे बिछड़ गया।

जुड़ना था उसे संग,
अब किसी और के।
स्वांग था सारे प्रेम का,
शायद सब ढोंग था।

प्रेम था या छल उसका,
जो भी था खूब था।
जीवन भर का नासूर दर्द,
वो बखूबी से दे गया।


- पूनम गूंजा


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