साहित्य चक्र

21 July 2025

कहाँ गए वो कागज़ की नाव वाले दिन ?





कहाँ गए वो भीगे लम्हे,
जहाँ बारिश भी दोस्त हुआ करती थी,
कागज़ की नाव बहा कर हम,
अपनी हँसी भी बहा दिया करते थे।

छोटी-सी छत, और बड़ा सा सपना,
बूंदें गिरतीं, दिल करता था तन्ना-बन्ना।
छप-छप करते, मिट्टी से सने,
वो दिन थे कितने अपने-अपने।

आज के बच्चे किताबों में गुम हैं,
मोबाइल की दुनिया में मौन से झूम हैं।
न बूँदें उन्हें पुकारती हैं,
न मिट्टी की खुशबू लुभाती है।

ना वो कागज़ की नाव बनती है,
ना हँसी बारिश में छनती है।
बस एक बोझ है पीठ पर भारी,
और नज़रें स्क्रीन पे हारी।

चलो फिर से एक दिन ऐसा आए,
जहाँ बच्चा खुलकर मुस्काए।
जहाँ प्रकृति हो उसकी सहेली,
हर बूंद से बजती हो अलबेली।

चलो बारिश को फिर दोस्त बनाएं,
कागज़ की नाव को जीवन में लाएं।
थोड़ा सा बाहर चलें किताबों से,
मिलें फिर से मिट्टी और बादलों से।

 
                                                   - बीना सेमवाल


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