साहित्य चक्र

02 July 2025

नौ कवियों की नौ कविताएँ...






पहली कविता

जिन्दगी
तुझको समझा नहीं,
जिसने समझा ,वो रहा नहीं,
और जो रहा नहीं,
वो फिर कैसे कहे कहीं।
तू बहुत कुछ छुपा रही है,
किस्तों में कुछ बता रही है।
हम अनजान,है नादान ,
हम जैसों को नचा रही है।
तुझे जीवन कहते हैं,तू जिंदगी
में समझौते करा रही है।
जो गुनाह हुए नहीं हमसे,उसका भी
भुगतान करा रही है।
तुमसे हो कोई कैसे,मर के भी आजाद,
हमारा इतिहास बन कर
हमे फिर दोहरा रही है।
तुझसे बचने का कोई तरीका बता,
या तो हो जाऊं पागल,
फिर तो न होगी तेरी रुसवाई,
और ना ही मेरी खता।

- रोशन कुमार झा

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दूसरी कविता


सबक जिसे हर किसी को अपनाना होगा,
पूर्वजों की कमाई तो राख कर दी हमने,
आने वाली पीढ़ियों का भविष्य बचाना होगा।

पूर्वजों के ऋण को चुकाने की कोशिश करते सब,
इन वृक्षों के उपकार को शिरोधार्य कर,
इनका ऋण भी हर इंसान को चुकाना होगा।

एक पेड़ नहीं दस पेड़ लगाने होंगे,
लगाकर पेड़ बच्चों की तरह पालने होंगे,
फिर धरा के जख्मों का हिसाब होगा।

इंसान पशु परिंदे सबके जीवन दाता हैं ये,
भेद भाव नहीं करते ये किसी से कभी भी,
इन पेड़ों को बचाना मानवता का ईनाम होगा।
परवरिश कर इनकी इनसे से नेह निभाना होगा,
इन पेड़ों से करेंगे गर हम सब दिल से प्यार,
तभी हम सबका जीवन खुशी से गुलज़ार होगा।
- राज कुमार कौंडल


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तीसरी कविता

जीवन हमें जीना है
चाहे कांटों सा हो
या फूलों सा हो
जीवन हमें जीना है
चाहे पहाड़ सा हो
या मैदान सा हो
जीवन हमें जीना है
चाहे शमशान सा हो
या उद्यान सा हो
जीवन हमें जीना है
चाहे हो खारे जल जैसा
या हो मीठे जल जैसा
जीवन हमें जीना है
चाहे हो स्वर्ग सरीखा
या हो नरक समान
जीवन हमें जीना है
काट चौरासी ये तन मिला
ये मानव तन बड़ा अनमोल
जैसा भी हो ये जीवन
हमें आनंद से जीना है।

 
- प्रवीण कुमार


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चौथी कविता

तबाही का आलम

जहां देखो वहां है 
तबाही का आलम
शायद इसमें है हमारे कर्म शामिल।
बादल फटने की घटना रोज है होती 
कहीं बाढ़ तो कहीं जमीन है धंसती।
गौशाला ढहती तो कहीं घर भी नहीं बचते
रातों को नींद गुम तो दिन में चैन नहीं पाते।
इंसानों की लासें दलदल में फंसती नजर आती 
गौवंश भी तैर कर जान है बचाती।
इंसान आज हुआ है निडर
प्रकृति से छेड़छाड़ में नहीं छोड़ता कोई कसर।
नदी नालों के किनारे घर बनाए 
बची कुची जगह पर खेत दिए अड़ाए।
जहां मन चाहा पहाड़ों का किया कटान
सुरंगें बना बना कर समझो कार्य किया महान।
अंदर से धरती भी ख़ूब हिली
फिर भी इंसान ने रुकने में सांस नहीं ली।
पेड़ों को काटना समझा अपना अधिकार 
धरती को बंजर बनाने में किया खूब प्रहार।
अरे इंसान अपने आप को थोड़ा संभाल
कहीं कुदरत दिखा न दे अपना कमाल।


- विनोद वर्मा

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पांचवीं कविता

स्वार्थ की परछाई

हर रिश्ता अब कुछ मतलब-सा लगता है,
अपनों का चेहरा भी अजनबी-सा दिखता है।
प्यार की खुशबू बिखेरने को मन तरसता है,
पर न जाने वो महक कहाँ खो जाता है।
मुस्कुराहट बाँटने का सपना पलकों में है,
पर हर चेहरा आज नकाब में गुम सा है।
आँखों की गहराई में चुप दर्द सिसकता है,
झूठी हँसी के पीछे कुछ सच्चा चुप रहता है।
कहाँ गया वो निर्मल अपनापन?
जहाँ न स्वार्थ था, न छल का बंधन।
हर मोड़ पर अब स्वार्थ की दीवार खड़ी है,
सच्ची बात भी जैसे अधूरी-सी पड़ी है।
फिर भी आशा की लौ जलती रहनी चाहिए,
अपने मूल्यों की डोर कभी नहीं ढीली पड़नी चाहिए।
लाखों स्वार्थों के बीच भी, निस्वार्थ प्रेम दिखाना है,
समाज की सेवा में खुद को लगाना है।
चाहे कोई देखे या न देखे यह तपस्या,
पर ईश्वर की दृष्टि में शुद्ध बने रहना है।
अपने कर्मों से एक नया उजाला लाना है,
इस स्वार्थ की दुनिया में निस्वार्थ बन जाना है।

- निशि धल सामल


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छठवीं कविता


सत्रहवाँ श्रृंगार- शिक्षा

सोलह श्रृंगारों में जब खुद को सँवारो,
चूड़ी, बिंदी, काजल, हर रस्म को निखारो।
पर एक श्रृंगार और है सबसे ख़ास,
जो देता है जीवन को असली प्रकाश।
वो है शिक्षा, वो है ज्ञान का दीप,
जिससे मिलती है आत्मा सम्मान का असली जीत।
ना झूमर, ना कंगन, ना मोतियों की लड़ी,
सत्रहवाँ श्रृंगार ही है असली गहना सखी।
रूप तो एक दिन फीका पड़ जाएगा,
पर बुद्धि का उजाला सदा संग आएगा।
तो शिक्षा ही बन जाए वो ताज,
जो बना दे तुम्हें भीड़ में सबसे अंदाज़।
सजना, सँवरना, ख़ूबसूरत लगना ज़रूरी है,
मगर समझदार और शिक्षित होना ज़्यादा ज़रूरी है।
इसलिए ऐ सखी! जब आईना देखो हर बार,
याद रखना- शिक्षा हो तुम्हारा सत्रहवाँ श्रृंगार।

- डॉ. सारिका ठाकुर 'जागृति'


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सातवीं कविता

वह जन्म देता है
पालता-पोसता है,
बीमार पड़ने पर
डॉक्टर पास ले जाता है,
ज़रूरत पड़ने पर
मल-मूत्र धोता है,
पढ़ाने-लिखाने हेतु
दिन-रात देह रगड़ता है ,
जवानी गला देता है
बुढ़ापा भूल जाता है।
वही संतान बड़ी होकर
उसे डांटकर कहती है-
"आपने मेरे लिए
किया ही क्या है!
अब से, हर मां-बाप को
इस बात का हिसाब
रखना ही होगा कि
उन्होंने उनके लिए
पैदा होने से अब तक
क्या-क्या किया है,
क्योंकि भाई साहब
ज़माना ही हिसाब का है।

- धर्मेन्द्र कुमार

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आठवीं कविता

ये रात वही
ये फिजा वही
ये रंग वही
ये ढंग वही
ये जख्म वही
ये घाव वही
ये आंचल वही

ये ख्वाब वही
ये दर्द वही
ये समां वही
ये दुनिया वही
तुम भी वही
मैं भी वही
फिर

क्यों ये बदला समां है
क्यों ये बदले रंग है
क्यों ये बदले ढंग है

आखिर क्यूँ..

आखिर क्यूँ...

- अंजलि राजपुरोहित


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नौवीं कविता

तू चाय मैं प्याला
तू बन जा मेरी चाय,
मैं तेरा प्याला बन जाऊं।
रोज़ मिले एक दूसरे से,
बहाना मैं ऐसा निराला बन जाऊं।

तू समाए मुझमें इस कद्र,
सुध बुध सारी खो जाऊं।
चाय के बहाने से ही सही,
कुछ पल तेरा हो जाऊं।
तू कुछ मुझमें घुल जाए,
मैं कुछ तुझमें घुल जाऊं।
तू मेरे रंग में रंग जाए,
मैं तेरे रंग मैं रंग जाऊं।
जब आए धुलने की बारी,
मेरे संग तू भी धुल जाए।
अंत समय तक साथ निभे,
समर्पण कुछ ऐसा कर जाए।
तू बन जा मेरी चाय,
मैं तेरा प्याला बन जाऊं।
रोज़ मिले एक दूसरे से,
बहाना मैं ऐसा निराला बन जाऊं।

- भुवनेश मालव


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