साहित्य चक्र

14 July 2025

सात कवियों की सात मनमोहक रचनाएँ



झमाझम बरसते सावन ने
तर कर दिया होगा ज़मीं को,
पर  मेरे  शुष्क  हृदय  की
पिपासा को शांत कर सके
इतना नीर  बदरा  में कहाँ!

ये तृष्णा तो तभी तृप्त होगी जब
सम्मुख होगा वो शख़्स जिसके लिए
मेरे दिल में व्याप्त है अथाह प्रेम
पूर्ण विश्वास और सच्ची भावनाएं,
कण-कण में दिखती जिसकी सूरत
व्याकुल  हैं  नैना  उसके दर्श को,
और लालसा है उससे मिलने की!

ये   गड़गड़ाती  बिजली  शायद 
संकेत है इस बात का कि ज़रुर
कोई याद  करता  होगा हमें भी,
और अधरों पर गिरा हर एक मोती 
उनके आने की बाट जोह रहा है!
तब इस तन-मन को भिगोने के लिए
बारिश की एक बूँद ही पर्याप्त है।


                                                         - आनन्द कुमार

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"कभी - कभी यूं ही.."
हर रोज तू,सबके लिए मुस्कुराता है,
कभी खुद के लिए भी थोड़ा मुस्कुराया कर।
खुद को रोज,दुनियादारी में उलझाए, 
बेवजह ही कुछ पल अपनों के लिए, जाया कर।
हर रोज तू मिलता है, सबसे।
कभी अपने सपनों से मिल आया कर।
हर रोज ऑफिस से लौट आता है,
थकावट छुपा जाता है,
कभी छत पर यूं ही टहल आया कर।
हर चीज में तू औरों के सोचे,
अपने अरमानों को रखे रोके,
कभी अपने अरमानों को जी जाया कर।
अपने तहखाने के झरोखों को 
कभी कभी खोल आया कर।

 
                                                   - रोशन कुमार झा


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कौन जाने मेरे सतगुरु
तुम बिन मुझ कौन जाने।
कौन तारे मेरे सतगुरु 
तुम बिन मुझ कौन  तारे।
कौन संभाले मेरे सतगुरु
तुम बिन मुझ कौन संभाले।
कौन समझे मेरे सतगुरु
तुम बिन मुझ कौन समझे।
कौन सँवारे मेरे सतगुरु
तुम बिन मुझ कौन सँवारे।
कौन ज्ञान चक्षु दें मेरे सतगुरु
तुम बिन मुझ कौन दें ।
कौन भव पार करें मेरे सतगुरू 
तुम बिन मुझ कौन पार करें।



                          - डॉ.राजीव डोगरा


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ताकत नहीं चलेगी पड़ेगी मुंह की खानी


क्यों हो रहा विनाश हर जगह
सब जानते हैं पर हैं खामोश
नियमों को रखते हैं ताक पर
सत्ता के नशे में होकर मदहोश

लोगों को ज़िन्दगी से कर रहे खिलवाड़
विकास के नाम पर खोद दिए पहाड़
सत्ता की राजनीति हर जगह सर्वोपरि
आगाह कर रही प्रकृति मार कर दहाड़

सोचिये जरा कौन है वह हत्यारा
जो विनाश के विकास का है जिम्मेवार
ज़िंदगियाँ लील ली जिसने अपनी चालों से
सन्नाटा पसरा है वहां जहां कभी होती थी बहार

पकड़ में कैसे आएगा चलता है हमेशा शकुनि चाल
आएगा एक दिन जब होगा शकुनि जैसा हाल
वातानुकूलित कमरे में बैठकर बनती हैं नीतियां
बाहर जाकर देखोगे हकीकत खुल जायेगा कपाल

अपनी गलती दूसरों पर थोपने में है महान
अपनी नहीं मानेगा दोष देगा प्रकृति को यह मूर्ख इंसान
छः छः मंजिले बना दी वहां जहां 
बन नहीं सकता था एक छोटा मकान

नालों पर कर लिया कब्जा कहाँ जाए पानी
पेट नहीं भरता फिर भी थोड़ी है ज़िंदगानी
सुरक्षा मानकों का जब नहीं रखोगे कभी ध्यान
वहां ताकत नहीं चलेगी पड़ेगी मुंह की खानी


                                      - रवींद्र कुमार शर्मा


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दलित होना मेरी ख़ूबी है लो स्वीकार करता हूं।
विधायक का टिकट दे जो, उसे मैं प्यार करता हूं।
नुमाइंदा हूं संसद में, मैं जिन - जिन बेसहारों का,
उन्हीं मज़लूमों की गर्दन पे खुल कर वार करता हूं।
ग़रीबों का मसीहा हूं, मगर ये भी हक़ीक़त है,
अमीरी से सदा मैं अपनी आंखें चार करता हूं।
रिज़र्वेशन के कारण ही भले पहुंचा हूं संसद में,
रिज़र्वेशन के बिल को फाड़ कर, मैं चार करता हूं।
कदम बोसी से उनकी तो, विधायक बन गया हूं मैं,
बुरा क्या है वफ़ादारी में सौ बेगार करता हूं।
दलित हूं तब तो अफ़सर हूं, दलित हूं तब तो सांसद हूं,
बनायी जाति जिसने, उसकी जय -जयकार करता हूं।
न तो अम्बेडकर प्यारे, न तो ये जाति वाले ही,
मैं गोबर, मूत्र, कांवड़, को नमन सौ बार करता हूं।
भले फटकारिए मुझको, या अब दुत्कारिये मुझको,
हूं मनई आप का, सेवा - टहल सत्कार करता हूं।
ज़बां ख़ामोश रखता हूं, क़लम को कुन्द रखता हूं,
मुनाफ़िक हूं तो हूं, इससे कहां इन्कार करता हूं।


- आर. पी. सोनकर 'तल्ख़ मेहनाजपुरी'


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उनतीस जून की वो काली रात
उनतीस जून की रात को मेघों ने किया क्रुर प्रहार
चहुं ओर मचने लग गई चीख पुकार।

अंधेरे में कोई नजर नहीं आया
दौड़ने भागने वाला ही बच पाया ।

सुबह जैसे-जैसे सूरज निकलने को आया
वैसे-वैसे चारों ओर तबाही का मंजर पाया ।

किसी की गौशाला बही किसी का घर द्वार
कहीं कीचड़ में पशु दबे तो कहीं पूरा परिवार।

अपनों को ढूंढने में चला कोई यहां तो कोई वहां
किसी की लाश मिली तो किसी का सुराग तक नहीं मिला यहां।

चारों ओर पहाड़ियां ल्हासों से भरी नजर आती
प्रकृति का देख यह मंजर आंखें भर जाती।

हर कोई मदद करने यहां है आता
मन को हौंसला भी खूब है दे जाता।

दिन भर लोगों को देख सब गम भूल जाता
रात भर अपनों की यादें और उस रात का मंजर याद आता।

घर द्वार तो फिर से बन जाएंगे
पर अपनों से जिंदगी भर नहीं मिल पाएंगे।

भगवान न करें ऐसी आपदा किसी और पर आए
पर "विनोद' ये तो समय का चक्र है पता नहीं कब क्या हो जाए।


- विनोद वर्मा

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हर वक्त के नये नये आयाम होते हैं कुछ बहुत खास तो कुछ आम होते हैं
बेहतर तलाश हो तो मिलती है मंज़िल कोशिश से बड़े बड़े काम होते हैं

बर्बादी वक्त की अक्लमंदी नहीं दोस्त मोहताज दाने दाने को इंसान होते हैं
तस्वीर आज की कल बदल जायेगी, वैचारिकी में सफलता के पैग़ाम होते है

काम जो कर गए देश समाज वास्ते जयकार उद्घोष में उनके नाम होते है
हर शख्स गढ़ रहा वजूद की ताबीर यहां सबके अपने अपने अरमान होते हैं

अपने कत्ल कर गए तरक्की की चाह में कई ऐसे कई बड़े बे इमान होते हैं
दिन रात इबादत से जलता नहीं चूल्हा डूबे पसीने में रोज़ सुबह शाम होते हैं

वक्त पे नरेन्द्र वो दोस्त ही दे गये दगा साथ जिनके रोज़ दो दो जाम होते हैं
हर वक्त के नये नये आयाम होते हैं कुछ खास तो कुछ


- नरेन्द्र सोनकर बरेली


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