सदाये हक़ जो निकल रही है, मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए,
ज़बां ही तो है, फिसल रही है, मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए।
न तितलियों के दिलों से खेलें, कभी न कलियों के दिल को तोड़ें,
निगाहे-गुलशन बदल रही है, मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए।
हवा मुआफि़क जिधर की हो गई, जनाबे-आली उधर मिलेंगे,
मुनाफ़िक़त सबको खल रही है, मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए।
शजर,नदी,जल,हवा बचा लें, बचा लें कु़दरत की नेमतों को,
ये धरती गर्मी उगल रही है, मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए।
करेगी जब भी नज़र बग़ावत, उलट के रख देगी खेल सारा,
नज़र ख़फ़ा है, टहल रही है, मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए।
दिलों की धड़कन,दिलों की हसरत, सभी की इज़्ज़त ये लोकशाही,
मगर ये नफ़रत में पल रही है, मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए।
मैं पारसाई का दावा करके, जवाब क्या दूॅंगा आइने को,
तमन्ना दिल में मचल रही है, मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए।
- आर पी सोनकर 'तल्ख़ मेहनाजपुरी'
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बेटियां
जब बेटियां जन्म हैं लेती
बदल जाते हैं क्यों मिज़ाज
अरे! उन्हीं के पग धरते ही
झंकरित होते हैं सब साज
सफल होती अपनी मंज़िल पर
जब करती उन्नति का आगाज़
जो जन्म पर सर झुकाए थे बैठे
करते हैं आज उन पर नाज़
बेटियां बोझ हरगिज़ नहीं होती
बिना कहे पढ़ लेती जज़्बात
पंख पसार नील गगन में
दो उन्हें उड़ने की परवाज़
फिर देखो कैसे रचती इतिहास
जिन पर फक्र करे यह समाज
मत रोको इन्हें, आगे बढ़ने दो
ये हैं नारी शक्ति की आवाज़
- वसुंधरा धर्माणी
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एडमिशन प्राइवेट में, पर सरकारी लाभ।
बच्चे केवल लिस्ट में, है क्या यह इंसाफ ?
खेत बटा आँगन बटा,इंच - इंच में नाप।
सिसक-सिसक कर जी रहें,चिथड़ों में माँ-बाप।।
बाभन बनिया वैश्य क्या,क्या कुर्मी कुम्हार।
दुश्मन से लोहा लिये, पासी खटिक चमार।।
तिल-तिल मरता रोज़ है,भूखा नंगा जान।
जाति नहीं ये गोह है , चबा रही इंसान।।
मनु का ब्राह्मणवाद रे,जल-भुन हुआ अधीर।
व्यासपीठ पर बैठ ज्यों, बाँचा कथा अहीर।।
गंगा बहे विकास की , लपालोट गण-देश।
महंगाई जन-जन को,निगल रही बन क्लेश।।
सड़क जमीनी सत्य है, संसद मिथ्या रूप।
कथनी-करनी कागजी, ठूठ लगे हर रूप।।
हर आँधी तूफान में,बनकर सीढ़ी - सेतु।
अड़े अडिग मिलते पिता,बच्चों के हित हेतु।।
खड़े सदा तनकर रहें,बनकर दीप-स्तंभ।
पिता नही ईमान हैं,स्वाभिमान औ' दंभ।।
- नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन'
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"ख़ामोश रिश्तों की चीख़"
तुमने कहा-
"तुम बातों को बढ़ा देती हो..."
मैंने हर घाव को छोटा मान लिया,
अपने आँसुओं को तकिए में छिपा लिया।
तुमने जताया-
"मैंने वो मतलब नहीं निकाला..."
और मैं अपने अर्थ को
अपने ही अंदर गुम करती गई।
मैंने हर बार
तुम्हारे शब्दों से ज़्यादा
तुम्हारे मौन को पढ़ा।
मैंने हर तर्क को
प्यार की तरह समझा।
पर जब खामोशी भी
अब संवाद नहीं रही,
तो मैंने खुद से कहा-
"अब और नहीं..."
अब मैं
किसी की सही होने
की परिभाषा में
गलत नहीं बनूंगी।
अब मैं
अपने भीतर के आइने से
मुलाक़ात करूंगी।
- प्रियंका सौरभ
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तो गज़ल मैं लिखूं,
तो गजल मैं लिखूँ,
गहराईयों को दिल की मेरे कोई
छू ले तो गजल मैं लिखूँ,
पी नहीं आज तलक एक घूँट
भी मैंने कभी दोस्तों ।
जामे मोहब्बत मुझको कोई
पिलाए तो गजल मैं लिखूं,
दूर रहकर भी दे जो अहसास,
मुझे बर्क़ की तरह ।
हादसा पेश कोई आए ऐसा तो
यारों गजल मै लिखूं,
हर वक्त सताता है मुझे तो बस
तसब्बुर उसका ।
अब कोई होश में मुझको लाए
तो गजल मैंलिखूं,
हर - सू अंधेरा है क़लम मुश्ताक़
अब चलाऊँ कैसे ।
नकाब रूखे रोशन से वो हटायें
तो गज़ल मैं लिखूं।
- डॉ .मुश्ताक़ अहमद शाह
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