साहित्य चक्र

27 July 2025

आज की 9 रचनाएँ









तुम्हीं से है


घूम रही है मही जैसे निरंतर,
अपनी धूरी पर बिन थके हर पल।
हो अग्रसर वैसे तुम भी अनवरत,
कर्तव्य धूरी पर हो अटल।

चूक जाये धरा जैसे परिक्रमा से,
हो जाये इससे भूल बस एक पल।
दिन -रात नहीं होंगे तब,
मौसम चक्र भी हो जायेगा ओझल।

तुम भी अगर स्वार्थी बन,
छोड़ जाएँ अपनी दिनचर्या कुछ पल।
घर, घर नहीं रहेगा तब,
व्यवस्था में हो जायेगी उथल पुथल।

लगा रही जैसे पृथ्वी अपना कण-कण,
विश्व कुनवे के पोषण में तृण –तृण।
तन-मन लगा रही तुम अपना आज,
हो उज्जवल ताकि कुटुंब का क्षण-क्षण।

सहनशीलता धरा की असीमित,
बाहर शांत भीतर लावा की हलचल।
निडर सहती प्रहार प्रबल,
रहती सदा समर्पित अविचल।

छल सहकर तुम रहती निश्छल ,
बाहर शांत अन्दर चाहे रही उबल।
अटल इरादा ,लक्ष्य और वादा,
अटूट तुम्हारा है आत्मबल।

है धरा से जैसे रहा ,
जीव जगत कुटुंब ये पल।
वैसे ही तुम्ही से है ,
बस तुम्ही से है
परिवार का आज और कल।


- धरम चंद धीमान


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तुझे खबर है कि नहीं ?

तेरे शहर का मौसम मेरे शहर के जैसा है कि नहीं, जो हाल मेरा है दिलबर तेरा भी है कि नहीं ? यहां तो हो गए तबाह कई ख्वाबों के शहर, तेरे दिल में भी यादों का कहर है कि नहीं ? हर तरफ शोर है, धमाका है, बवंडर है, तेरी आंखों में कोई उठती सी लहर है कि नहीं ? कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, तेरे हिस्से में आसमां, मेरे हिस्से में जमीं है कि नहीं ? हवाएं तेज हैं यादों की , बेरहम सर्द मौसम है, उठी है आह ! सीने में तुझे खबर है कि नहीं ? सुना है हो गया है मशहूर तू जमाने में, तेरी मशरूफियत में मेरा भी जिक्र है कि नहीं ? मैं परेशां हूं कि तू परेशां तो नहीं किसी गम से, पता नहीं तुझको भी मेरी फिक्र है कि नहीं ? ये इश्क भी क्या कमाल की चीज है मौला, सजा है उम्र भर की पता नहीं खता है भी कि नहीं ?
- मंजू सागर


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मदद 

मदद है एक ऐसा उपहार 
खिल उठे जरूरतमंद जब पहुंचे उसके द्वार।
इसकी नजर में नहीं कोई छोटा न बड़ा
रास्ते में इसके जात व धर्म कभी नहीं अड़ा।
मदद करने वाले हरदम रहते हैं तैयार 
वो नहीं जानते जैसा हो जिसका व्यवहार।
सिर्फ मदद करना ही होती उनकी कामना 
कितनी भी समस्याओं का क्यों न करना पड़े उन्हें सामना।
जब भी कहीं से मदद की आवाज है आई
इसके सिपाहियों को पूर्ण होने पर ही सांस आई।
मदद करने वालों को जब भी मिलता है मौका
फिर क्या ये अपनी मेहनत और प्रयासों का लगा देते हैं चौका।
आओ हम सब मिलकर ले ये प्रण
जरूरतमंद की सहायता कर चुकाएं इंसानियत का ऋण।

- विनोद वर्मा


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आभास

दिवस में भी जब रात का आभास हो,
तो रात्रि को पूनम बनाना चाहिए।
जीवन मे जब मौत का आगाज़ हो,
तो मौत को सुकून बनाना चाहिए।
सुख यदि हो दुखो के आगोश में,
तो दुःख को मीत बनाना चाहिए।
क्रन्दन के स्वरों को बदलकर,
हँसी का संगीत बनाना चाहिए।
रेत सा भले ही समय जाए फिसल।
यादों मे उसे बांध लेना चाहिए।
शून्य न होता जीवन कभी,
मन मे यह आश रखना चाहिए।
प्रार्थना तुम्हारी हो जब अनसुनी,
खुद को ही भगवान बनाना चाहिए।
अन्याय न माने अपनी हार तो
खुद को शैतान बनाना चाहिए।
सिखाती है हमे भी यह हवा
रोग ही बनने लगे जब दवा।
सीधे हाथो से जब न काम हो
तो हाथ टेढ़ी भी कर लेना चाहिए।

- रत्ना बापुली



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क्या गौर से, देखा है आइना

काँटा इश्क का तुम भी
खुद को, चुभा कर देखो।
जुदाई में तमामरात आँसू
अपने, बहा कर देखो।
अपनों को तो हर कोई
लगा लेता है , गले से अपने।
कभी गैरों को भी तो सीने
से अपने लगा कर देखो।
आग नफरत की लोगों के
दरमियान लगाने वालों।
इन लपटों के बीच एक
पल तो बिता के देखो।
कितने हसीन लगते हो
क्या गौर से, देखा है आइना।
जाओ रुख्सार में जुल्फे
अपनी आज गिरा के तो देखो।
हंसते हो कह कर के हमें
तुम पागल, मुश्ताक, मुश्ताक।
चोट खाकर कोई तुम भी
अपने जिगर पर देखो।

- डॉ . मुश्ताक़ अहमद शाह


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कितना रोये होंगे वह पेड़

कितना रोये होंगे वह सेव से लदे पेड़
जब चली होगी विभाग की उनपर कुल्हाड़ी
क्या कसूर था उनका यदि सरकारी जमीन पर थे
जब लगाए थे तब किसकी गई थी मति मारी

गिरने से पहले सोचते होंगे
मानव कितना बड़ा है अत्याचारी
छोटे छोटे बच्चों की तरह थे लटके सेव
अपने बच्चों की याद नहीं आई कैसे चलाई होगी आरी

क्यों काटना जरूरी था उनको इसलिए कि अतिक्रमण था
और नहीं तो फलों को तो तोड़कर कर देते किनारे
भूख से बिलबिलाते नन्हें बच्चों को ही खिला देते
पेट भर जाता मिल जाते उनको सहारे

कहते हैं पेड़ लगाने हैं पर्यावरण है बचाना
काट दिए उन्होंने हरे पेड़ जिनका काम था लगाना
कोई कुछ नहीं कर सका न्यायालय के आगे
कोई युक्ति काम न आई कैसे था इनको बचाना

पेड़ को तो उगना था जमीन निजी होती या सरकारी
जब लगाये थे पौधे तब क्यों नहीं थी विभाग को जानकारी
फलों से लदे पेड़ों को काटना बहुत बड़ा है पाप
आने वाले समय में यह हो सकता है विनाशकारी

- रवींद्र कुमार शर्मा


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काज़िब

कितने मंत्रमुग्ध हो
औरों के लिए
अपने लिए थोड़ा होते तो
क्या बात थीं।

कितने मंत्रमुग्ध हो
झूठ अहम के लिए
किसी पर रहम के लिए होता तो
क्या बात थीं।

कितने मंत्रमुग्ध हो
मतलबी हंसी के लिए
मासूम मुस्कराहट के लिए होता तो
क्या बात थीं।

कितने मंत्रमुग्ध हो
दूसरों को नीचा दिखाने के लिए
खुद के व्यक्तित्व को
ऊंचा उठाने के लिए होते तो
क्या बात थी।

- डॉ. राजीव डोगरा


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प्रभु को पाना

मन में हो संकल्प शक्ति तो- लक्ष्य साधना संभव है। अगर लगन से काम करें तो- वांछित पाना संभव है। हो भविष्य पर दृष्टि अगर तो- विगत भुलाना संभव है। चलते-चलते नहीं थके तो - मंजिल पाना संभव है। प्रीति पनप जाए दिल में तो- मीत बनाना संभव है। गीतों में यदि दर्द बसा हो- दिल बहलाना संभव है। जो रूठे हैं, सरल हृदय से - उन्हें मनाना संभव है। और अटल विश्वास अगर हो-
प्रभु को पाना संभव है।

राजेंद्र श्रीवास्तव


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मेरी आत्मकथा

धूप-छाँव के मधुर दिवस में,
मैं निकली थी जीवन-पथ पर।
कुंजों में गूँज रही थी वाणी,
मधु-मुरली की अलि के स्वर।

किरणों की पहली चितवन ने,
मुझको सपना देख कराया,
नील गगन के विस्तृत पट पर,
आत्मा ने रंगों को पाया।

माँ की करुणा, पिता की वाणी,
बनीं मेरी प्रथम थाती,
किंतु हृदय की मधु गहराई,
खोज रही थी सत्य की बाती।

कभी हिमालय-शिखरों पर,
कभी पवन के मृदु झोंकों में,
मैंने जीवन के गूढ़ रहस्य
देखे कंचन से आँखों में।

मैंने पीड़ा को ओढ़ लिया,
जैसे चाँदनी ओढ़े धरा,
वेदना की भीनी सुवास से,
मन ने कविता का रंग भरा।

जो भी पाया, जो भी खोया,
सब कुछ बन गया गीत मेरा,
मैं न रहूँ, पर समय के सांचे
ढालेगा फिर जीवन मेरा।

नश्वर तन है, पर विचार अमर,
मैं स्वर बन बहता जाऊँगा,
हर कोमल संवेदना में
मैं पुनः जन्म ले आऊँगी।

- डॉ. सारिका ठाकुर 'जागृति'


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रोटी बड़ी या देश बड़ा ?

संसद गूंगी
सांसद गूंगा
न्यायालय गूंगा
न्यायाधीश गूंगा
सत्ता गूंगी
शासन गूंगा
दल-दल गूंगा
गण-गण गूंगा
बस्ती गूंगी
घर-घर गूंगा
जन-जन गूंगा
कण-कण गूंगा
धरम-करम का परचम गूंगा
पढ़ें-लिखें का दमखम गूंगा
इस देश का सिस्टम गूंगा
अशिक्षा का ग्राफ न पूछो?
महंगाई की भाप न पूछो?
बेरोज़गारी ज़िंदा डसती
छात्र लटकते हैं फांसी पर
हताशा, निराशा इतनी-
खून, मांस, लोग बेचें किडनी!
नगर-सिटी क्या,
बस्ती क्या,
लोग भटकते दर-बदर
रोटी इतनी
सस्ती क्या?
युवाओं-किसानों का
बढ़ रहा नित मृत्यु-आंकड़ा
इस प्रश्न के उत्तर में
संसद ने किया प्रश्न खड़ा-
रोटी बड़ी या देश बड़ा ?

- नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन'


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