साहित्य चक्र

19 July 2025

कविता- स्वान की आत्मकथा




हूं, बेघर और बेजुबान, 
यहां ना मेरा कोई अपना है।
कहने को सारा जहां मेरा,
पर ठौर ना कोई ठिकाना है।

इंसान के साथ रहा,शदियों से
सिखा सबकुछ,और सिखा वफ़ाई।
पर साथ रहकर ना सीख सका
झूठ, फ़रेब और बेवफाई।

शायद इसीलिए फिरता हूँ, 
राहों में, हमारी ज़िंदगी गुजरी है,
मालिक की पनाहूं में।

ये शरीफों की रियासतों से दूर,
रहता हूं चुप, अपनी धुन में चूर।

अपनी गली में मेरे और 
सिर्फ मेरा राज है।
मैं अपने झुंड का सरताज हूं।

लेकिन फिर, 
अब भी सताती हैं,
भूख मुझे
सड़क पर फेकी झूठन,
और सूखी रोटी का मोहताज हूं।


                                               - रोशन कुमार झा



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