साहित्य चक्र

31 July 2025

प्रेमचंद का साहित्य कहानी या उपन्यास नहीं, बल्कि भारत की हकीकत है।

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी (तत्कालीन बनारस) के समीप एक छोटे से गाँव लमही में हुआ था। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ जब भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था और समाज अनेक प्रकार की कुरीतियों, अंधविश्वासों और सामाजिक विषमताओं से ग्रस्त था। उनके माता-पिता ने उनका नाम रखा ,धनपत राय श्रीवास्तव। बचपन में ही वे मातृ-पितृ स्नेह से वंचित हो गए। प्रारंभिक जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा,आर्थिक अभाव, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ और सामाजिक असंतुलन ने उनके व्यक्तित्व को ऐसे आकार में ढाला कि उन्होंने साहित्य को केवल सौंदर्य या कल्पना नहीं, बल्कि पीड़ित समाज की वाणी बनाया।





प्रेमचंद ने अपने साहित्यिक सफर की शुरुआत उर्दू भाषा में 'नवाबराय' उपनाम से की। उनकी पहली प्रकाशित कृति 'सोज़े वतन' ब्रिटिश सरकार को इतनी नागवार गुज़री कि उस पर पाबंदी लगा दी गई। इसके बाद उन्होंने 'प्रेमचंद' नाम अपनाया और हिंदी लेखन की ओर अग्रसर हुए। उनके साहित्य में जो यथार्थ चित्रण है, वह उनके जीवनानुभवों का निष्कलंक प्रतिबिंब है। उनके पात्र सीधा पाठक से बात करते हैं, उसकी पीड़ा को उसका स्वयं का अनुभव बना देते हैं। चाहे वह 'धीरू' जैसा किसान हो, 'होरी' हो या 'निर्मला' हर पात्र आमजन से आता है और उसे सच के धरातल पर खड़ा करता है।

प्रेमचंद को 'उपन्यास सम्राट' यूं ही नहीं कहा गया। उन्होंने हिंदी साहित्य को ऐसी कालजयी रचनाएं दीं जिन्होंने साहित्य को केवल अभिजात वर्ग की संपत्ति नहीं, बल्कि जनमानस की आवाज़ बना दिया। 'गोदान' में एक किसान की वेदना और साहूकारी शोषण की मार्मिक कथा है, तो 'गबन' मध्यमवर्गीय मानसिकता और नैतिक संघर्ष का अद्भुत चित्रण है। 'निर्मला' बाल विवाह की त्रासदी और नारी-जीवन की विडंबनाओं को परत-दर-परत खोलती है, तो ‘सेवासदन’ स्त्री मुक्ति की पुकार बन जाती है। 'रंगभूमि' में एक अंधे भिक्षुक सूरदास के माध्यम से पूंजीवाद और शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई गई है।

उनकी कहानियाँ, 'कफन', 'दो बैलों की कथा', 'पूस की रात', 'पंच परमेश्वर', 'बड़े घर की बेटी'न केवल साहित्यिक दृष्टि से उत्कृष्ट हैं, बल्कि सामाजिक दृष्टि से अत्यंत सशक्त हैं। 'कफन' में हाशिये पर खड़े मानवों का कठोर यथार्थ है, तो 'पूस की रात' में निर्धन किसान की विवशता और संघर्ष। 'दो बैलों की कथा' में मनुष्यता की संवेदना और पशु-पात्रों के माध्यम से मानवीय पीड़ा का जो चित्र रचा गया है, वह अद्वितीय है।






प्रेमचंद का साहित्य बहुपरतीय है, वह महज़ कहानी या उपन्यास नहीं, एक विचारधारा है। उन्होंने साहित्य को 'सत्य के अन्वेषण' और 'समाज-सुधार' का साधन माना। उनके लिए लेखन धर्म था,और इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर स्वराज्य आंदोलन से सांस्कृतिक स्तर पर जुड़ाव किया।

उनकी भाषा में कहीं बनावट नहीं, कोई अलंकारिक बड़प्पन नहीं ,बल्कि सादगी, आत्मीयता और जीवन की सरल-सच्चाई है। उन्होंने खड़ी बोली को वह गरिमा और सरसता दी जिसकी भाषा में एक ओर संवेदना की नर्मी हो, दूसरी ओर विचार की शक्ति। लोकभाषा, भावप्रवाह और कथ्य की सहजता यही उनके लेखन की सबसे बड़ी विशिष्टता थी। उन्होंने साहित्य में आदर्श और यथार्थ का एक अद्भुत समन्वय स्थापित किया, जिसका असर हिंदी साहित्य की आगे की पीढ़ियों पर गहराई से पड़ा।

मुंशी प्रेमचंद ने जीवनभर वंचितों, उत्पीड़ितों, स्त्रियों, मजदूरों, किसानों और दलितों की आवाज़ को मंच दिया। उन्होंने उन कहानियों को लिखा जिन्हें समाज अक्सर अनसुना करता रहा। यह उनकी लेखनी का ही प्रताप था कि उन्होंने एक कालखंड को भाषा और कथ्य के माध्यम से जीवंत कर दिया और उनके पात्र कालजयी बन गए।





8 अक्टूबर 1936 को जब वे इस संसार से विदा हुए, उस समय वे आर्थिक रूप से असमर्थ, शारीरिक रूप से अस्वस्थ, लेकिन नैतिक रूप से इतने समृद्ध थे कि उनकी चिताभस्म से साहित्य की चेतना आज भी जल रही है। उनके साहित्य में एक युग की परछाइयाँ हैं और भविष्य के बदलाव की संभावनाएँ भी।

आज जब हम हर 31 जुलाई को ‘राष्ट्रीय लेखक दिवस’ के रूप में प्रेमचंद की जयंती मनाते हैं, तो यह केवल औपचारिक श्रद्धांजलि भर नहीं होनी चाहिए, बल्कि लेखक, पाठक और समाज के रूप में यह संकल्प होना चाहिए कि प्रेमचंद के सिद्धांत , यथार्थवाद, संवेदना, समाजसापेक्षता और समानता , को हम अपने जीवन, लेखन और कर्म में आत्मसात करें। यही मुंशी प्रेमचंद के प्रति हमारी सच्ची नमन होगी।


- डॉ. मुश्ताक अहमद




29 July 2025

आज की रचनाएँ- 29 जुलाई 2025





ये कैसा रिश्ता 

सात फेरों का सात जन्मों 
 का रिश्ता माना जाता 
पर आज इस रिश्ते में 
खोट जरूर नजर आता।
सात जन्म तो क्या निभाने 
एक ही जन्म लग गया है
अब मौत से रूबरू करवाने।
पत्नी अर्धांगिनी मानी जाती 
उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े 
कर फ्रीज में डाली है जाती।
प्रेम विवाह कर रिश्ता बनाया जाता 
फिर गैर मर्द से रिश्ता बनाकर
 पति का क़त्ल करवाया जाता।
पति के टुकड़े टुकड़े कर नीले ड्रम में डाले
स्वयं गैर मर्द संग कारनामें किए काले।
हनीमून मनाने निकले घर से जब
पुराने प्रेमी से क़त्ल करवाकर सांस ली तब।
पति परमेश्वर था माना जाता 
आज तो उसके टुकड़ों को टाइलों 
के नीचे  पत्नी द्वारा दबाया है जाता।
बाईक पर जब  घूमने है निकले
सैल्फी के बहाने पति को नदी में धका
देकर बोली ये तो स्वयं है फिसले।
दोनों में थोड़ी कहा-सुनी हुई जब
पत्नी ने पति की जीभ काट ली तब।
नाग पंचमी मनाने पति संग मायके आई
फरार हुई प्रेमी संग फिर चैन पाई।
जो एक दूजे के होते थे  प्रेम में दिवानें
आज एक दूजे का खून करके धूम लगे हैं मचानें ।
आखिर ये रिश्ता इतना बिगड़ कैसे गया 
हो सकता है इसमें कोई तीसरा आ गया।
इस रिश्ते को बचाने की मुहिम चलानी होगी 
अन्यथा एक बड़ी त्रासदी झेलनी होगी।

- विनोद वर्मा


*****


गुलाबी शामें, सुनहरी रातें

दुनिया मोहब्बत के रंगों से सजी है
फिर भी हर नज़ारा उधार
सा लगता है।
भीगती बारिश, चमकती बूँदें, 
गुलाबी शामें, सुनहरी रातें,
सब उसकी यादों में, 
उसके बिना अधूरे से लगते हैं।
चाँद तारे की महफ़िलें,
हवाओं की सिहरन,
उसकी मुस्कान न हो तो,
सब सूना-सूना सा है।
दिल हर पल पूछता है ,
ये मंज़र उदास क्यों है?
जवाब सिर्फ धड़कनों 
में छुपा होता है।
मोहब्बत पास हो तो हर
मौसम ख़ूबसूरत,
वो न हो तो हर नज़र बेजान।
यही है इश्क़ की तड़प,
जुदाई में हर ख़ुशी बेरंग,
फिर भी दिल में उम्मीद की
किरण रहती है।
कभी ये बरसात, ये हवा,
फिर से उसके साथ हसीन हो जाए।
ये तेरी यादों का मौसम है,
हर मंज़र तेरा नाम पुकारता है।
हर लफ़्ज़  मेरा तुझमें खो जाता है।

- डॉ. मुश्ताक अहमद



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जीवन की चाल

वो हर मोड़ पर बस फिसलते रहे,
हम सच्चाई के साथ चलते रहे।

वो माया के प्याले सँभालते रहे,
हम ख़्वाबों में सच्चाई पलते रहे।

वो शोहरत के पीछे मचलते रहे,
हम सुकूनों में खुद को बदलते रहे।

वो रिश्तों की दीवार छलते रहे,
हम टूटे हुए दिल भी मलते रहे।

वो हर दिन नया ज़ख़्म छलते रहे,
हम हर दर्द में गीत गुनगुनाते रहे।

वो दुनिया के रंगों में ढलते रहे,
हम उजली हकीकत में जलते रहे।

- शशि धर कुमार


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मैं ही मैं हूं 

जब तुम्हें मैं कहीं दिखाई ना दूं ,
हर तरफ खामोशी हो 
और मैं कहीं सुनाई ना दूं !
सोचकर देखना कि मैं नहीं हूं 
मैं कहीं नहीं हूं ....... 
महसूस करना मुझे ...
हर कोने में , तस्वीर में , अपनी आंखों में ...
दर्पण में , बीती यादों  की तह में ...
पलक मत झपकना ... वरना गिर जाऊंगी 
आंसू बनकर तुम्हारे पहलू में ....
उस आंसू की खुशबू महसूस करना ...
या रोककर उसमें देखना सतरंगी पल 
कुछ अनछुए अहसास ....
सोचकर देखना कि मैं नहीं हूं 
मैं कहीं नहीं हूं .....
मुश्किल लगने लगेंगी राहें ...
और मंजिल.... दूर ...बहुत दूर ....
एक अनजाना सा डर रोकने लगेगा सांसें 
पर देखना कि मैं हूं ...
यही कहीं आसपास ....
जहां भी महसूस कर सको 
मेरी उपस्थिति ...... मैं वहीं हूं 
.... मैं हूं .... हर जगह हूं....
ख्याल में .... खुशबू में आंखों में ....
सिर्फ मैं हूं .... मैं ही मैं हूं .....

- मंजू सागर 


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संशय

हां मैं लिखता हूं
तुम्हारी मुस्कुराहट में 
अपना वजूद लिखता हूं।

हां मैं देखता हूं 
तुम्हारी छुपती निगाहों में 
अपना अस्तित्व देखता हूं।

 हां मैं मुस्कुराता हूं
 तुम्हारी स्मृति में खोकर
 हृदय तल से मुस्काता हूं।

हां मैं डरता हूं 
एक बेनाम रिश्ते को 
एक नाम देने से डरता हूं।

- डॉ. राजीव डोगरा


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वो घर पुराना

वो मेरा पुराना घर,
थे बेपरवाह,नहीं था डर।
सालों बाद जब पड़े कदम,
तैर गए वो सारे मंजर।

आने लगी हँसी की आवाज़ें,
कुछ ढूँढ रही थीं मेरी निगाहें।
सब कुछ तो मिला मगर,
फीकी पड़ गईं अब मुस्कुराहटें।

देखो दीवारें भी रो पड़ीं,
बंद हुई वो भी घड़ी।
किसी आशा से तकती थी जो,
इंतज़ार में यूँ ही खड़ी।

सजता था चूल्हा उसी ओर,
माँ जगाती "उठ, हो गई भोर!"
चारों तरफ फैला वीराना,
नहीं रहा अब कोई भी शोर।

अब तो हैं सबके अलग कमरे,
कौन उठाए किसी के नखरे?
पहले रहते थे सब एकत्रित,
आज सब लगते बिखरे-बिखरे।

अबकी मनाएँ वहीं त्योहार,
सजाएँ फिर से घर-आँगन-द्वार।
नींव न बिखरे कभी भी फिर,
इनका हम पर बड़ा उपकार।

- सविता सिंह मीरा

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पतवार

ज़िंदगी की कश्तियाँ टूटी नहीं अब तक,
हौंसलों की बाँह में हर बार पतवार है।

छीन लेता है भले कुछ रोज़ ये संसार भी,
मगर सीने में दबी इक मौन कमान है।

हार कर हर मोड़ पर सीखा यही मैंने,
हर शिकस्ते-ज़िंदगी में छुपा जहान है।

सफ़र लम्बा है, मगर रुकता नहीं पांव,
थक चले जिस्म, दिल में न कोई थकान है।

जिसको लोग समझे हैं बस इक मुसाफ़िर,
उसके हौसलों में छुपी पूरी जान है।

ज़ख्म खाकर भी जो मुस्काता रहा हर रोज़,
उसके जज़्बों को मेरा सच्चा सम्मान है।

कितने तो टूटे मगर फिर भी न बिखरे,
दिल के तहख़ानों में बचे कुछ अरमान है।

डूबते हैं सब मगर बचते वही अक्सर,
जिनके पास आख़िरी कोई पतवार है।

- शशि धर कुमार

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प्रेम!

ढाई अक्षर का एक शब्द
यही रिश्ताहै न !
हम दोनों के दरमियां ?
जानता हूं मैं,तुम्हारा प्रेम भी
सच्चा है, परअंतर है कुछ,
हम दोनों के,प्रेम की परिभाषा में,
मेरे लिए,किसी दिल के
एक कोने का, किसी दूसरे दिल के
एक कोने से, बंध जाना,
अनदेखी गिरह से,प्रेम है !
तुम्हारे लिए,एक देह का,
दूसरी देह से,मात्र स्पर्श ही
प्रेम है! माना दोनों ही
प्रेम के रूप हैं,
लेकिन,
तुम देखना, मेरा प्रेम
बढ़ेगा, बढ़ता रहेगा और बना रहेगा,
अनंत-काल तक, पर तुम्हारा प्रेम !
शायद,धुंधला पड़ जाएगा
समय के साथ।
पता है,ढाई अक्षर के,
इस शब्द में,एक और एक अक्षर,
का जुड़ना,बताता है कि,
कि स्वीकार कर लिया है,
मैंने प्रेम किया तुम्हारी
परिभाषा को।
पर वो आधा अक्षर,अभी अधूरा ही है,
जो मेरे प्रेम की,
परिभाषा है,
साथ यूं ही खड़ा है
बस इस उम्मीद में कि शायद,
इसे तुम पूरा करोगे,
किसी दिन।

- विकास कुमार शुक्ल


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कहासुनी

मन से आगे बढ़ना सीखो !
मन से मिलना सीखो!
आपस में क्या लड़ना ?
मन न मिले तो दूर हो जाओ !
मन ही मन क्यों किसी को कोसना ?
माटी का खिलौना हो, माटी में है मिलना,
किस पर इतना अभिमान करना,
क्या है मेरा इस जग में ?
बस मोह का बन्धन है,
यहाँ सुलझे हुए भी उलझे हुए हैं,
दो दिन की है जिंदगानी,
तू तू मैं मैं क्यों किसी से करना ?
तुमने कहा मैंने सुना,
मैंने कहा तुमने सुना,
मन में गाँठ मत रखना,
कहासुनी हो गई तो,
बात को दिल से मत लेना,
अपनों से क्यों झगड़ना ?
प्रेम से मिलकर रहना सीखो!

- चेतना सिंह


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28 July 2025

कारगिल शहीदों को नमन





कारगिल की चोटियों पर थे बैठे कब्ज़ा जमा,
पाक घुसपैठियों ने की थी जानबूझ ये खता।
सेना ने खदेड़ने को करने फिर से हासिल फतह,
आप्रेशन विजय चलाया बना जो जीत की वजह।

घुसपैठ को करने विफल वापिस पाने को जमीं,
दुश्मन को मार गिराने रणभेरी थी बज उठी,
सीना तान भूखे –प्यासे दिन –रात सेना रही डटी,
दांत खट्टे दुश्मन के करके ही वो फिर हटी।

इतना आसान नहीं था घुसपैठियों को भगाना,
उंचाई पर थे वो ,सेना को था चढ़ कर जाना,
दृढ़ विश्वास,अदम्य हौंसला और योजना के बल,
हर नौजवान दुश्मन के लिए, पहुंचा काल बन।

शुष्क हवा ,बर्फीली चोटियाँ , राहें थी दुर्गम,
पाक के नापाक इरादों को कुचलना न था सुगम,
भारत के फौलादी इरादों से दुश्मन हुआ बेखबर,
टूट गया वह देख साहस ,वीरता और समर्पण।

खदेड़ दिया नीचों को, जवानों ने लहू बहाकर,
नुकीली चोटियों के उपर चढ़ते रहे निरंतर,
इच्छा और विश्वास करने स्वयं का बलिदान,
बेखौफ मौत से लड़े ,बढ़ाने भारत का मान।

कोटि-कोटि नमन उन शहीद अमर वीरों को,
अदम्य साहस से चमकते उन फौलादी हीरों को,
मां भारती की शान खातिर हो गये जो शहीद,
भारत भूमि का जर्रा-जर्रा आज उनका है मुरीद।


- लता कुमारी धीमान


कारगिल विजय दिवस: नई पीढ़ी के लिए शौर्यगाथा का संदेश


"अगर आप चाहें, तो इतिहास रच सकते हैं; लेकिन अगर आप चाहें कि पीढ़ियाँ उसे याद रखें, तो उसे अपने लहू से लिखना होगा।"






26 जुलाई 1999, वह दिन था जब भारत ने अपने पराक्रम, दृढ़ संकल्प और सैनिकों की अतुलनीय वीरता से एक इतिहास रचा, जिसे आने वाली पीढ़ियाँ केवल पाठ्यपुस्तकों में नहीं पढ़ेंगी, बल्कि अपने हृदय में सजाकर रखेंगी। यह केवल एक विजय दिवस नहीं, बल्कि भारत की अखंडता, राष्ट्रीय गौरव और वीरता का प्रतीक है। 2025 में जब हम कारगिल विजय की 26वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, यह अवसर केवल एक सैनिक विजय की स्मृति नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को राष्ट्रभक्ति, साहस और कर्तव्यनिष्ठा का जीवंत संदेश देने का भी अवसर है।

आज की युवा पीढ़ी सोशल मीडिया, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और वैश्वीकरण के युग में पल-बढ़ रही है, जहां सूचनाओं की कोई कमी नहीं है, परंतु वास्तविक मूल्यबोध और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना अक्सर सतही हो जाती है। ऐसे में कारगिल की वीरगाथा को केवल 'एक ऐतिहासिक घटना' समझना एक भूल होगी। यह एक जीवन मूल्य है, जो हमें सिखाता है कि मातृभूमि के लिए बलिदान किसी प्रचार का विषय नहीं, बल्कि आत्मा का संकल्प होता है।

कारगिल युद्ध : वह सच्चाई जिसे जानना ज़रूरी है- कारगिल युद्ध मई 1999 से लेकर 26 जुलाई तक चला, जिसमें भारतीय सेना ने 60 दिनों के भीतर दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में दुश्मन के द्वारा अवैध रूप से कब्जाई गई चौकियों को फिर से अपने अधीन किया। यह युद्ध परंपरागत युद्धों से अलग था। पाकिस्तानी सेना ने 'मुजाहिदीन' के नाम पर छद्म युद्ध छेड़ा और भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की। जब यह वास्तविकता सामने आई कि घुसपैठिए कोई आतंकवादी नहीं, बल्कि पाकिस्तान की नियमित सेना के सैनिक हैं, तब भारत सरकार और सेना ने बिना किसी उकसावे के संयम, परंतु कर्तव्यनिष्ठा के साथ सैन्य कार्रवाई शुरू की।

यह युद्ध न केवल भौगोलिक दृष्टि से कठिन था, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से भी अत्यंत जटिल था। दुश्मन ऊँचाई पर था और भारतीय सैनिकों को निचले स्थानों से चढ़ाई करते हुए संघर्ष करना था। 10 से -15 डिग्री तापमान में, सांस रोक देने वाली ऊंचाइयों पर, भारतीय सैनिकों ने जिस प्रकार अपने प्राणों की आहुति दी, वह आज भी रोंगटे खड़े कर देता है।

शहीदों की चिताओं पर हर साल खिलते हैं चिरंतन सपने : कैप्टन विक्रम बत्रा, ग्रेनेडियर योगेंद्र यादव, मेजर पद्मपाणि आचार्य, लेफ्टिनेंट मनोज पांडे और अनगिनत नाम- जिन्होंने न केवल अपने प्राण दिए, बल्कि एक युग को प्रेरणा दी। "यह दिल मांगे मोर" कहने वाले कैप्टन विक्रम बत्रा की कहानी नई पीढ़ी के लिए केवल एक वीरगाथा नहीं, बल्कि 'कर्तव्य से बढ़कर कुछ नहीं' का जीवन दर्शन है।

इन शहीदों ने कोई राजनीतिक लाभ नहीं चाहा, ना ही कोई यश। उन्होंने केवल एक बात चाही- भारत की भूमि पर कोई पराया झंडा न लहराए। उन्होंने अपनी अंतिम सांसों में भी "भारत माता की जय" के नारे लगाए और आज भी उनकी कहानियाँ हर उस युवा को प्रेरित करती हैं, जो अपने जीवन में उद्देश्य खोज रहा हो।

नई पीढ़ी की सोच और कारगिल की प्रासंगिकता- 2025 में, जब नई पीढ़ी एक वैश्विक नागरिक बनने की ओर अग्रसर है, तब कारगिल जैसे ऐतिहासिक प्रसंगों की व्याख्या केवल 'युद्ध' के संदर्भ में करना अनुचित होगा। दरअसल, यह युद्ध नहीं, चेतना का पुनर्जागरण था। आज युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि यह विजय केवल सीमा पर बंदूक चलाने से नहीं मिली, बल्कि मानसिक साहस, अनुशासन, राष्ट्रीय एकता और अटूट समर्पण की नींव पर खड़ी हुई थी।

हर वर्ष कारगिल विजय दिवस मनाने का उद्देश्य केवल मोमबत्तियाँ जलाना या वीरों की प्रतिमाओं पर पुष्प अर्पण करना नहीं होना चाहिए। यह एक अवसर है स्वयं के भीतर झाँकने का, पूछने का- क्या मैं अपने देश के लिए ईमानदार हूँ? क्या मैं अपने कर्तव्यों को उतनी ही गंभीरता से लेता हूँ, जितनी गंभीरता से एक सैनिक अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित करता है?

शिक्षा, मीडिया और समाज- शौर्यगाथाओं के संवाहक- नई पीढ़ी को कारगिल जैसी घटनाओं से जोड़ने में शिक्षा और मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज जब डिजिटल कंटेंट, गेमिंग और रील्स का दौर है, तब जरूरी हो जाता है कि हमारे पाठ्यक्रमों में वीरता की सच्ची कहानियों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाए कि युवा केवल उन्हें रटें नहीं, बल्कि उनसे जुड़ें।

मीडिया को चाहिए कि वह केवल ट्रेंडिंग विषयों के पीछे न भागे, बल्कि युवा मन में राष्ट्रप्रेम को उकसाने वाले सकारात्मक और तथ्यात्मक कंटेंट को प्राथमिकता दे। भारत के हजारों शहीदों के परिवार आज भी गुमनामी में जीवन जी रहे हैं, जिनकी कहानियाँ देश को प्रेरणा दे सकती हैं।

शौर्य से संस्कार तक- नई पीढ़ी को राष्ट्रधर्म का बोध : आज की पीढ़ी जिस परिवेश में पली-बढ़ी है, वह तकनीकी प्रगति, वैश्विक संवाद और व्यक्तिवादी विचारों से घिरा हुआ है। स्वतंत्रता, अधिकार और अवसरों की बातें करने वाले इस युग में 'कर्तव्य' और 'बलिदान' जैसे शब्द कभी-कभी अप्रासंगिक प्रतीत होते हैं। लेकिन कारगिल विजय दिवस हमें याद दिलाता है कि राष्ट्र निर्माण केवल राजनीतिक घोषणाओं से नहीं, बल्कि नागरिकों के भीतर निहित जिम्मेदारी और आत्मबलिदान की भावना से होता है।



- पूनाम चतुर्वेदी शुक्ला




भारत-चीन संबंध 2025 में: सीमा विवाद से व्यापार तक


2025 का वैश्विक परिदृश्य राजनीतिक पुनर्संरचनाओं, आर्थिक आत्मनिर्भरता की लहरों और क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धाओं से गहराई से प्रभावित हो चुका है। इन बदलते हालातों में भारत और चीन- एशिया की दो सबसे बड़ी महाशक्तियाँ- न केवल एक-दूसरे की राजनीतिक चेतना का आईना बन चुकी हैं, बल्कि उनके आपसी संबंधों ने वैश्विक संतुलन को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है।

आज जब हम भारत-चीन संबंधों पर दृष्टिपात करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि यह रिश्ता केवल सीमा पर तैनात सैनिकों, डोकलाम या गलवान जैसी घटनाओं या ब्रिक्स सम्मेलनों तक सीमित नहीं है। यह संबंध अब सामरिक द्वंद्व, आर्थिक गूंथन, कूटनीतिक समीकरण और सांस्कृतिक विभाजनों का एक जटिल जाल बन चुका है।






एक ओर चीन वैश्विक व्यापार का केंद्र बनने की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है, वहीं भारत "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना के साथ एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। इन दो देशों के बीच की दूरी केवल भौगोलिक नहीं, वैचारिक और रणनीतिक भी है। 2025 में जब हम इस पड़ोसीपन की पड़ताल करते हैं, तो पाते हैं कि एक ओर तो आपसी व्यापार का आंकड़ा 120 अरब डॉलर से भी अधिक हो चुका है, वहीं दूसरी ओर सीमा पर तनाव, आपसी अविश्वास और सैन्य होड़ ने इस संबंध को लगातार डावांडोल बनाए रखा है।

सीमा विवाद- शांति की आकांक्षा बनाम रणनीतिक संदेह- भारत और चीन के बीच सीमा विवाद कोई नया विषय नहीं है। 1962 का युद्ध, 1987 का सुमदोरोंग चू गतिरोध, 2013 का देपसांग संकट, 2017 का डोकलाम गतिरोध और 2020 का गलवान संघर्ष- ये सब इस बात की गवाही देते हैं कि सीमाएं आज भी तय नहीं हो पाईं। 2025 में भी वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर सैन्य गतिशीलता, निगरानी उपकरणों की तैनाती और ‘शांतिपूर्ण संवाद’ के खोखले वादों के बीच एक भयावह स्थायीत्व मौजूद है।

गलवान घाटी में हुई हिंसा ने दोनों देशों के मध्य विश्वास की अंतिम कड़ी को भी झकझोर दिया था। 2020 के बाद से ही दोनों पक्षों के बीच लगातार सैन्य और कूटनीतिक वार्ताएं हुईं, कुछ क्षेत्रों में सैन्य पीछे हटना भी हुआ, परंतु विवाद के मूल कारण- सीमा निर्धारण की स्पष्टता की अनुपस्थिति- को अब तक सुलझाया नहीं जा सका।

2025 तक आते-आते चीन ने अरुणाचल प्रदेश को "दक्षिण तिब्बत" बताना बंद नहीं किया है, वहीं भारत भी अब तवांग में सैन्य और रणनीतिक निर्माण को आक्रामक रूप में तेज़ कर चुका है। दोनों देशों के बीच "सहमति से असहमति" की यह स्थिति न केवल क्षेत्रीय शांति के लिए खतरा है, बल्कि एशिया में बड़े स्तर पर सैन्य प्रतिस्पर्धा को जन्म दे रही है।

व्यापारिक निर्भरता- विरोधाभासों की आर्थिक साझेदारी : चौंकाने वाली बात यह है कि इन तमाम सैन्य और रणनीतिक तनावों के बावजूद भारत और चीन के बीच व्यापार लगातार बढ़ रहा है। वर्ष 2024-25 में द्विपक्षीय व्यापार का आंकड़ा 120 अरब डॉलर को पार कर गया है, जिसमें चीन भारत को 100 अरब डॉलर से अधिक का निर्यात करता है, जबकि भारत का निर्यात चीन को लगभग 20 अरब डॉलर पर ही ठहर गया है। यह व्यापारिक असंतुलन चिंता का विषय बना हुआ है।

भारत में मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक्स, दवाओं के कच्चे माल (API), खिलौनों, सोलर पैनलों और भारी मशीनरी में चीनी आयात का गहरा प्रभाव है। वहीं भारत चीन को मुख्यतः लौह अयस्क, कपास और कुछ रसायन निर्यात करता है। यानि जहां एक ओर भारत "आत्मनिर्भर भारत" की बात करता है, वहीं दूसरी ओर उसकी आपूर्ति श्रृंखला चीन पर बेतरह निर्भर बनी हुई है।

भारत सरकार ने कई बार विभिन्न चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध, FDI नियमों में सख्ती और चीनी कंपनियों पर जांच के जरिए कड़ा संदेश देने की कोशिश की है, लेकिन चीनी निवेश अब भी भारतीय स्टार्टअप इकोसिस्टम और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में गहराई से जड़ें जमाए हुए है। 2025 में चीन की कंपनियाँ भारत में फिनटेक, ऑटोमोटिव और फार्मा क्षेत्रों में बड़े हिस्सेदारी वाली साझेदारियों में सक्रिय हैं।

रणनीतिक मोर्चा- हिन्द-प्रशांत में प्रतिस्पर्धा और 'QUAD' की छाया- भारत और चीन के रिश्तों का बड़ा आयाम हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भी परिलक्षित होता है। चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI), ग्वादर और हम्बनटोटा में बंदरगाह विकास और दक्षिण चीन सागर में आक्रामक सैन्य विस्तार भारत के लिए गहरी चिंता का विषय बने हुए हैं।

भारत ने जवाब में ‘एक्ट ईस्ट’ नीति को सशक्त बनाया है, क्वाड (QUAD) के साथ रणनीतिक सहयोग को प्रबल किया है और अंडमान-निकोबार से लेकर अरुणाचल तक के क्षेत्रों में सैन्य आधारभूत संरचना को दोगुना किया है। अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत के साझा सैन्य अभ्यास, सामुद्रिक निगरानी और चिप निर्माण जैसी तकनीकी साझेदारियाँ चीन को संतुलित करने की रणनीति का हिस्सा हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि 2025 तक भारत ने साइबर सुरक्षा और स्पेस डिफेन्स के क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है, जो चीनी तकनीकी निगरानी के खतरों से मुकाबले की रणनीति का एक अहम हिस्सा है।


- प्रशांत चौबे


गिरती छतें, गिरती ज़मीर: झालावाड़ हादसा और हमारी व्यवस्था की नींव में छुपी मौत

राजस्थान के झालावाड़ जिले में एक सरकारी स्कूल की छत गिर गई। और उसके नीचे दबकर कुछ मासूम टाबर- वो बच्चे जिनकी आँखों में सपने थे, जिनकी किताबों में भविष्य था- हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए। किसी ने कहा, "ये एक हादसा था"। मगर जिन लोगों की ज़िंदगियाँ मिट्टी में मिल गईं, उनके लिए यह हादसा नहीं था। यह हत्या थी। और कातिल हम सब हैं- चाहे सरकारी सिस्टम हो, प्रशासन, ठेकेदार, या समाज।




हमारा समाज कब इतना संवेदनहीन हो गया कि एक स्कूल की छत गिर जाने की ख़बर पर भी सिर्फ सोशल मीडिया पर ‘श्रद्धांजलि’ और ‘दुःखद’ लिखकर आगे बढ़ जाता है? क्या हमने इतनी जल्दी सीख लिया है, बच्चों की मौत को ‘न्यू नॉर्मल’ की तरह स्वीकार करना ?

हर ईंट एक गवाही देती है कि इस स्कूल की छत कमजोर नहीं थी- उसकी नींव में ही भ्रष्टाचार घुला था। बिल्डिंग के नक्शे से लेकर निर्माण सामग्री तक, हर कदम पर कोई न कोई ईमानदारी से भागा। और जब ईमानदारी भागती है, तब ज़मीर गिरती है। और जब ज़मीर गिरती है, तब छतें गिरती हैं, मासूम दबते हैं।

आप ठेकेदार हैं? आप मिस्त्री हैं? आप इंजीनियर हैं? तो आप जिम्मेदार हैं। अगर आपने रिश्वत खाई, अगर आपने सस्ती सामग्री का इस्तेमाल किया, अगर आपने आँखें मूंदी, तो आप हत्यारे हैं। और यह शब्द मैं हल्के में नहीं कह रहा।

आज जो छत गिरी है, वह सिर्फ सीमेंट और सरिए की बनी नहीं थी- वह हमारे भरोसे, हमारी ज़िम्मेदारी और हमारे संविधान की आत्मा की छत थी। जब वो गिरी, तो यह संकेत था कि इस देश का लोककल्याण का वादा अब केवल कागज़ पर बचा है।





सवाल यह भी है कि इन हादसों के बाद जांच कौन करता है? वही विभाग जिनके अधिकारियों ने निर्माण के समय आँखें मूँदी थीं? वही नेता जिनके इशारे पर टेंडर बाँटे गए थे? क्या हमने कभी देखा है कि किसी मंत्री को ऐसे हादसे के लिए इस्तीफा देना पड़ा हो? शायद नहीं। क्योंकि हमारे देश में पद की गरिमा बची है, जिम्मेदारी नहीं।

झालावाड़ की घटना से पहले भी कई बार यह ज़मीर हिली है। मध्य प्रदेश में स्कूल की दीवार गिरने से सात बच्चे मरे थे। उत्तर प्रदेश में पुल के उद्घाटन के तीन दिन बाद ही वह टूट गया था। बिहार में अस्पताल की छत का हिस्सा गिरा और एक मरीज की मौत हो गई। यह हादसे नहीं, पैटर्न हैं। और इस पैटर्न का नाम है- “ठेकेदारी तंत्र”

यह तंत्र राजनीति, नौकरशाही और व्यापार का त्रिकोण है, जिसमें नीचे हमेशा जनता दबती है। और जब जनता स्कूल में पढ़ते बच्चों के रूप में दबती है, तब यह त्रिकोण त्रासदी बन जाता है।

हमारा सिस्टम सिर्फ ज़िम्मेदार नहीं है, वो संवेदनहीन भी हो चला है। हर मरे हुए बच्चे पर नेता दुख जताते हैं, मुआवज़े की घोषणा करते हैं, और फिर किसी अगली चुनावी रैली में व्यस्त हो जाते हैं। लेकिन एक माँ के लिए मुआवज़ा क्या होता है? वो बच्चा जो दोपहर की छुट्टी के बाद लौटने वाला था, वो अब सफेद चादर में लिपट कर लौटता है। क्या कोई रकम उस आँचल की गर्मी लौटा सकती है जिसमें अब सिर्फ सूनापन बचा है?

हमें यह भी सोचना होगा कि आखिर ऐसा होता क्यों है? क्या हमारे स्कूल भवन इतने पुराने हैं? नहीं। कई जगह हाल ही में बने स्कूल भी गिर रहे हैं। असली वजह है- मानक प्रक्रिया का पालन न करना। स्कूल भवन बनाने में सस्ती सामग्री का प्रयोग, स्थानीय राजनीतिक हस्तक्षेप, टेंडर प्रक्रिया में भाई-भतीजावाद, और निर्माण के समय तकनीकी निरीक्षण का अभाव।

सरकारें योजनाएं बनाती हैं- "सर्व शिक्षा अभियान", "समग्र शिक्षा अभियान", "स्कूल चलें हम"- लेकिन क्या कोई अभियान "स्कूल बचे रहें" भी है? क्या कोई योजना बच्चों की जान बचाने के लिए है? या फिर वो सिर्फ आँकड़ों के लिए हैं?

यहां एक और पहलू देखिए- ग्रामीण इलाकों में कई स्कूल तो पंचायत की ज़मीन पर बने हैं, जिनका न तो नियमित निरीक्षण होता है, न ही मरम्मत। कई जगह प्रधान ही ठेकेदार होता है, और उसके निर्माण में 'गुणवत्ता' शब्द मज़ाक बनकर रह जाता है। यहाँ तक कि कहीं-कहीं सरकारी स्कूलों की दीवारें पोस्टरों और नारों से पटी होती हैं- "पढ़ेगा इंडिया, तभी तो बढ़ेगा इंडिया" लेकिन दीवार के अंदर बालू और भ्रष्टाचार से बनी ईंटें सांस ले रही होती हैं।





समस्या केवल भवन की नहीं है, पूरी मानसिकता की है। जब तक हम हर सरकारी काम को ‘चलता है’ की मानसिकता से देखते रहेंगे, तब तक छतें गिरती रहेंगी। और हर छत के साथ कुछ सपने, कुछ हँसते चेहरें और कुछ माँ-बाप की पूरी दुनिया ढहती रहेगी।

हमें अब बदलाव की शुरुआत करनी होगी- जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। हर सरकारी निर्माण का ‘Live Audit’ होना चाहिए। निर्माण सामग्री की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा होनी चाहिए। RTI के माध्यम से स्कूल भवनों की गुणवत्ता की रिपोर्ट जनता के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। निर्माण कार्यों में स्थानीय समाज को निगरानी का अधिकार देना चाहिए।

सिर्फ यही नहीं, अब न्यायिक हस्तक्षेप भी ज़रूरी है। सुप्रीम कोर्ट को इस तरह के मामलों में स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। निर्माण में लापरवाही को ‘क्रिमिनल नेग्लिजेंस’ मानकर दोषियों पर गैर-जमानती धाराओं में मुकदमे दर्ज होने चाहिए।

अब वक़्त आ गया है कि समाज भी अपनी भूमिका समझे। हर मोहल्ले, हर गाँव में लोगों को पूछना चाहिए—हमारे बच्चों का स्कूल सुरक्षित है या नहीं? अगर नहीं, तो आवाज़ उठानी चाहिए। चुप रहना भी अपराध है।

पत्रकारों को भी घटनास्थल पर जाकर खबरें बनानी चाहिए, सिर्फ “X बच्चे मरे” जैसी हेडलाइनों से आगे बढ़कर यह पूछना चाहिए- “क्यों मरे?” “किसकी लापरवाही?” और “अब क्या कार्रवाई?” पत्रकारिता अगर सिर्फ आंकड़ों तक सीमित रह गई, तो वह भी इस व्यवस्था की ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती।

झालावाड़ के उन मासूम बच्चों की आत्मा भले ही अब इस दुनिया में न हो, लेकिन उनकी यादें हमें यह याद दिलाती रहेंगी कि हमारी खामोशी किस हद तक खतरनाक हो सकती है। हर बच्चा जो उस स्कूल में पढ़ने गया था, उसने देश के भविष्य में निवेश किया था। मगर बदले में हमने उसे मलबे में दफना दिया।

जब अगली बार आप किसी इमारत को बनते देखें, तो सिर्फ यह मत देखिए कि वह कितनी ऊँची होगी, यह भी सोचिए कि उसकी नींव में ईमान है या नहीं। क्योंकि अगर नींव में लालच, लापरवाही और भ्रष्टाचार है, तो वह इमारत नहीं, कब्र है।

आज जो मलबा झालावाड़ में बिखरा है, वह सिर्फ एक इमारत का नहीं है, वह हमारी सोच, हमारी जिम्मेदारी और हमारी संवेदना का भी मलबा है।

उन बच्चों को श्रद्धांजलि नहीं चाहिए- उन्हें इंसाफ़ चाहिए। और इंसाफ़ तब होगा जब हमारी व्यवस्था की छतें फिर से मजबूत होंगी। जब हर ईंट में ईमानदारी होगी। जब ठेकेदार अपनी ज़मीर से निर्माण करेगा। जब अधिकारी निरीक्षण में ग़फलत नहीं करेगा। जब समाज खामोश नहीं रहेगा।

आख़िर में एक सवाल- हर टूटती छत, हर गिरती दीवार हमसे पूछ रही है-क्या अब भी तुम्हारी ज़मीर ज़िंदा है ?


- प्रियंका सौरभ



कविता- हुक्मरानों






तुम्हारे कान बंद कर लो हुक्मरानों,
ताकि मासूमों की चीखों का करुण क्रंदन तुम्हें सुनाई न दे।

आँखें तो तुम्हारी पहले से ही बंद थी,
जो विद्या मंदिरों की जर्जर इमारतें तुम्हें दिखाई न दी।

नन्हें बच्चे जो विद्यालय में भविष्य के सपने संजोकर आए थे,
उन्हें क्या पता था कि
उनकी जिंदगी पर मौत के काले बादल छाए थे।

कुछ पलों में माता पिता ने अपना सबकुछ खो दिया,
उज्ज्वल भविष्य की चाह में उनका लाल मौत की गहरी नींद सो गया।

आज एक शिक्षक के रूप में मेरे मन में जबरदस्त आक्रोश है,
मैं मेरे विद्यालय में बच्चों को ईमानदारी
व नैतिकता का पाठ पढ़ाता रह गया।

इधर कुछ चुनिंदा लोग जो कागज पर सब सही दिखाते रहे,
उनकी लापरवाही से आज एक विद्यालय में
कई बच्चों का स्वर्णिम सपना हमेशा के लिए ढह गया।

- भुवनेश मालव



27 July 2025

आज की 9 रचनाएँ









तुम्हीं से है


घूम रही है मही जैसे निरंतर,
अपनी धूरी पर बिन थके हर पल।
हो अग्रसर वैसे तुम भी अनवरत,
कर्तव्य धूरी पर हो अटल।

चूक जाये धरा जैसे परिक्रमा से,
हो जाये इससे भूल बस एक पल।
दिन -रात नहीं होंगे तब,
मौसम चक्र भी हो जायेगा ओझल।

तुम भी अगर स्वार्थी बन,
छोड़ जाएँ अपनी दिनचर्या कुछ पल।
घर, घर नहीं रहेगा तब,
व्यवस्था में हो जायेगी उथल पुथल।

लगा रही जैसे पृथ्वी अपना कण-कण,
विश्व कुनवे के पोषण में तृण –तृण।
तन-मन लगा रही तुम अपना आज,
हो उज्जवल ताकि कुटुंब का क्षण-क्षण।

सहनशीलता धरा की असीमित,
बाहर शांत भीतर लावा की हलचल।
निडर सहती प्रहार प्रबल,
रहती सदा समर्पित अविचल।

छल सहकर तुम रहती निश्छल ,
बाहर शांत अन्दर चाहे रही उबल।
अटल इरादा ,लक्ष्य और वादा,
अटूट तुम्हारा है आत्मबल।

है धरा से जैसे रहा ,
जीव जगत कुटुंब ये पल।
वैसे ही तुम्ही से है ,
बस तुम्ही से है
परिवार का आज और कल।


- धरम चंद धीमान


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तुझे खबर है कि नहीं ?

तेरे शहर का मौसम मेरे शहर के जैसा है कि नहीं, जो हाल मेरा है दिलबर तेरा भी है कि नहीं ? यहां तो हो गए तबाह कई ख्वाबों के शहर, तेरे दिल में भी यादों का कहर है कि नहीं ? हर तरफ शोर है, धमाका है, बवंडर है, तेरी आंखों में कोई उठती सी लहर है कि नहीं ? कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, तेरे हिस्से में आसमां, मेरे हिस्से में जमीं है कि नहीं ? हवाएं तेज हैं यादों की , बेरहम सर्द मौसम है, उठी है आह ! सीने में तुझे खबर है कि नहीं ? सुना है हो गया है मशहूर तू जमाने में, तेरी मशरूफियत में मेरा भी जिक्र है कि नहीं ? मैं परेशां हूं कि तू परेशां तो नहीं किसी गम से, पता नहीं तुझको भी मेरी फिक्र है कि नहीं ? ये इश्क भी क्या कमाल की चीज है मौला, सजा है उम्र भर की पता नहीं खता है भी कि नहीं ?
- मंजू सागर


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मदद 

मदद है एक ऐसा उपहार 
खिल उठे जरूरतमंद जब पहुंचे उसके द्वार।
इसकी नजर में नहीं कोई छोटा न बड़ा
रास्ते में इसके जात व धर्म कभी नहीं अड़ा।
मदद करने वाले हरदम रहते हैं तैयार 
वो नहीं जानते जैसा हो जिसका व्यवहार।
सिर्फ मदद करना ही होती उनकी कामना 
कितनी भी समस्याओं का क्यों न करना पड़े उन्हें सामना।
जब भी कहीं से मदद की आवाज है आई
इसके सिपाहियों को पूर्ण होने पर ही सांस आई।
मदद करने वालों को जब भी मिलता है मौका
फिर क्या ये अपनी मेहनत और प्रयासों का लगा देते हैं चौका।
आओ हम सब मिलकर ले ये प्रण
जरूरतमंद की सहायता कर चुकाएं इंसानियत का ऋण।

- विनोद वर्मा


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आभास

दिवस में भी जब रात का आभास हो,
तो रात्रि को पूनम बनाना चाहिए।
जीवन मे जब मौत का आगाज़ हो,
तो मौत को सुकून बनाना चाहिए।
सुख यदि हो दुखो के आगोश में,
तो दुःख को मीत बनाना चाहिए।
क्रन्दन के स्वरों को बदलकर,
हँसी का संगीत बनाना चाहिए।
रेत सा भले ही समय जाए फिसल।
यादों मे उसे बांध लेना चाहिए।
शून्य न होता जीवन कभी,
मन मे यह आश रखना चाहिए।
प्रार्थना तुम्हारी हो जब अनसुनी,
खुद को ही भगवान बनाना चाहिए।
अन्याय न माने अपनी हार तो
खुद को शैतान बनाना चाहिए।
सिखाती है हमे भी यह हवा
रोग ही बनने लगे जब दवा।
सीधे हाथो से जब न काम हो
तो हाथ टेढ़ी भी कर लेना चाहिए।

- रत्ना बापुली



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क्या गौर से, देखा है आइना

काँटा इश्क का तुम भी
खुद को, चुभा कर देखो।
जुदाई में तमामरात आँसू
अपने, बहा कर देखो।
अपनों को तो हर कोई
लगा लेता है , गले से अपने।
कभी गैरों को भी तो सीने
से अपने लगा कर देखो।
आग नफरत की लोगों के
दरमियान लगाने वालों।
इन लपटों के बीच एक
पल तो बिता के देखो।
कितने हसीन लगते हो
क्या गौर से, देखा है आइना।
जाओ रुख्सार में जुल्फे
अपनी आज गिरा के तो देखो।
हंसते हो कह कर के हमें
तुम पागल, मुश्ताक, मुश्ताक।
चोट खाकर कोई तुम भी
अपने जिगर पर देखो।

- डॉ . मुश्ताक़ अहमद शाह


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कितना रोये होंगे वह पेड़

कितना रोये होंगे वह सेव से लदे पेड़
जब चली होगी विभाग की उनपर कुल्हाड़ी
क्या कसूर था उनका यदि सरकारी जमीन पर थे
जब लगाए थे तब किसकी गई थी मति मारी

गिरने से पहले सोचते होंगे
मानव कितना बड़ा है अत्याचारी
छोटे छोटे बच्चों की तरह थे लटके सेव
अपने बच्चों की याद नहीं आई कैसे चलाई होगी आरी

क्यों काटना जरूरी था उनको इसलिए कि अतिक्रमण था
और नहीं तो फलों को तो तोड़कर कर देते किनारे
भूख से बिलबिलाते नन्हें बच्चों को ही खिला देते
पेट भर जाता मिल जाते उनको सहारे

कहते हैं पेड़ लगाने हैं पर्यावरण है बचाना
काट दिए उन्होंने हरे पेड़ जिनका काम था लगाना
कोई कुछ नहीं कर सका न्यायालय के आगे
कोई युक्ति काम न आई कैसे था इनको बचाना

पेड़ को तो उगना था जमीन निजी होती या सरकारी
जब लगाये थे पौधे तब क्यों नहीं थी विभाग को जानकारी
फलों से लदे पेड़ों को काटना बहुत बड़ा है पाप
आने वाले समय में यह हो सकता है विनाशकारी

- रवींद्र कुमार शर्मा


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काज़िब

कितने मंत्रमुग्ध हो
औरों के लिए
अपने लिए थोड़ा होते तो
क्या बात थीं।

कितने मंत्रमुग्ध हो
झूठ अहम के लिए
किसी पर रहम के लिए होता तो
क्या बात थीं।

कितने मंत्रमुग्ध हो
मतलबी हंसी के लिए
मासूम मुस्कराहट के लिए होता तो
क्या बात थीं।

कितने मंत्रमुग्ध हो
दूसरों को नीचा दिखाने के लिए
खुद के व्यक्तित्व को
ऊंचा उठाने के लिए होते तो
क्या बात थी।

- डॉ. राजीव डोगरा


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प्रभु को पाना

मन में हो संकल्प शक्ति तो- लक्ष्य साधना संभव है। अगर लगन से काम करें तो- वांछित पाना संभव है। हो भविष्य पर दृष्टि अगर तो- विगत भुलाना संभव है। चलते-चलते नहीं थके तो - मंजिल पाना संभव है। प्रीति पनप जाए दिल में तो- मीत बनाना संभव है। गीतों में यदि दर्द बसा हो- दिल बहलाना संभव है। जो रूठे हैं, सरल हृदय से - उन्हें मनाना संभव है। और अटल विश्वास अगर हो-
प्रभु को पाना संभव है।

राजेंद्र श्रीवास्तव


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मेरी आत्मकथा

धूप-छाँव के मधुर दिवस में,
मैं निकली थी जीवन-पथ पर।
कुंजों में गूँज रही थी वाणी,
मधु-मुरली की अलि के स्वर।

किरणों की पहली चितवन ने,
मुझको सपना देख कराया,
नील गगन के विस्तृत पट पर,
आत्मा ने रंगों को पाया।

माँ की करुणा, पिता की वाणी,
बनीं मेरी प्रथम थाती,
किंतु हृदय की मधु गहराई,
खोज रही थी सत्य की बाती।

कभी हिमालय-शिखरों पर,
कभी पवन के मृदु झोंकों में,
मैंने जीवन के गूढ़ रहस्य
देखे कंचन से आँखों में।

मैंने पीड़ा को ओढ़ लिया,
जैसे चाँदनी ओढ़े धरा,
वेदना की भीनी सुवास से,
मन ने कविता का रंग भरा।

जो भी पाया, जो भी खोया,
सब कुछ बन गया गीत मेरा,
मैं न रहूँ, पर समय के सांचे
ढालेगा फिर जीवन मेरा।

नश्वर तन है, पर विचार अमर,
मैं स्वर बन बहता जाऊँगा,
हर कोमल संवेदना में
मैं पुनः जन्म ले आऊँगी।

- डॉ. सारिका ठाकुर 'जागृति'


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रोटी बड़ी या देश बड़ा ?

संसद गूंगी
सांसद गूंगा
न्यायालय गूंगा
न्यायाधीश गूंगा
सत्ता गूंगी
शासन गूंगा
दल-दल गूंगा
गण-गण गूंगा
बस्ती गूंगी
घर-घर गूंगा
जन-जन गूंगा
कण-कण गूंगा
धरम-करम का परचम गूंगा
पढ़ें-लिखें का दमखम गूंगा
इस देश का सिस्टम गूंगा
अशिक्षा का ग्राफ न पूछो?
महंगाई की भाप न पूछो?
बेरोज़गारी ज़िंदा डसती
छात्र लटकते हैं फांसी पर
हताशा, निराशा इतनी-
खून, मांस, लोग बेचें किडनी!
नगर-सिटी क्या,
बस्ती क्या,
लोग भटकते दर-बदर
रोटी इतनी
सस्ती क्या?
युवाओं-किसानों का
बढ़ रहा नित मृत्यु-आंकड़ा
इस प्रश्न के उत्तर में
संसद ने किया प्रश्न खड़ा-
रोटी बड़ी या देश बड़ा ?

- नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन'


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