साहित्य चक्र

29 August 2020

"रात को नींद नही आती है"





बिस्तर पर अधखुली ऑंखे
नींद से होकर बेखबर बेफिजूल
की ख्याल बुनती रह जाती है,
रात को नींद नही आती है।

कुछ बंजर पड़े ख्वाब,
निरीह तन को करते है विक्षत
इसी कशमकश में रात गुजर जाती है
रात को नींद नही आती है।
  
अतीत के किस्से तो कभी
भविष्य में हाथ लगने वाले हिस्से
के बीच विचरण करता है दृग
रात को नींद नही आती है।

रात खेल रही है कोई खेल
या नींद ने की है गुस्ताख़ी
बीत जाती है रात करने मे तफ़्तीश
रात को नींद नही आती है।

तमिस्र भरी रातो में चमकते
तारक व कुमुद के देख तफ़नगी
ऑंखे रात को कोसती रह जाती है
रात को नींद नही आती है।
        
                                आशुतोष यादव


No comments:

Post a Comment