साहित्य चक्र

29 August 2020

क्षणिकाएं




एक

वह जार-जार, बेजार रो रहा था
लाड़-दुलार की फुहार व्यर्थ जा रही थी
हाथी-घोड़ा, गाजा-बाजा भी बेअसर जा रहा था
माँ ने उसकी उसे फिर, अपनी छाती से लगाया
छाती से लगाकर उसे, अपना दूध पिलाया
कुछ पलों बाद वह अबोध मुस्कुरा रहा था

दो

कचड़े के उस अम्बार से, हर शख्स बचकर चल रहा था
नाक को कोई हथेलियों से, तो कोई रूमाल से ढक रहा था
घृणा से देखती आँखों से बेखबर, गड्ढे मे तब्दील वे आँखें
शिद्दत से अपने मतलब का सामान ढूंढ रही थी
अधबुझी आँखों में अब जुगनू चमक रही थी
शायद उन्हें उनके मतलब का सामान दिख रहा था

तीन

पेट था या वह उसकी पीठ थी, पता नहीं चल रहा था
हाड़ जलाकर काँपती हड्डियों से वह हड्डी-ढाँचा
अपनी हड्डियों से नमक बहा रहा था
अंतड़ियों में उठती उमेठन, शायद उसमे बल भर रही थी
दिन ढले उसके नमक की कीमत, जब उसकी हाथों में आई
उसकी अँतड़ियां खुश हो रही थीं, वह मुस्कुरा रहा था

                                      निशान्त राज



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