साहित्य चक्र

16 August 2020

जीवन युद्ध




शिथिल पड़ा क्यूं मौन होकर
जरा सी बाधा से यूं ध्यान खोकर
क्यूं अंतर्मन विचलित करता है
क्यूं कर्त्तव्य पथ से पीछे हटता है

आशा निराशा का मेल है जीवन
क्यूं निराशा में गोते खाता है
इक चिराग ह्रदय में सदा जलाए रखना
क्यूं गहरे तम में डूबा जाता है
 
क्या सहना दुःख दर्द की पीड़ा
दुःख जीवन का मात्र इक क्रीड़ा
जो करना है वो करता जा
यूं जी कर भी मत मरता जा

यूं त्रुटियां तुझमें लाख सही
जीवन शून्यता से ग्रस्त है
है कौन जग में सम्पूर्ण हुआ
है कौन नहीं व्यथा से त्रस्त है

 सौंप दे मुस्कान को ये दर्द सारे
फिर देख बदलेंगे ये सारे नजारे
ये जग हंसते हुए को हंसाता है
रोता इंसान कहां किसी को भाता है
 
तू जानता है खुद को तू क्या है
ये दुनिया की आलोचना मिथ्या है
तू इंसान हैं तू खुद को बदलता जा
ये दुनिया बदलने की चाह से दूर निकलता जा

जीवन को अंतिम समर समझ
हर क्षण पग धरते जाना है
टूटे गर शमशीर समर में
टूटी शमशीरो से भी लड़ते जाना है

 स्वयं को कब तक यूं मिटाता जाएगा
व्यर्थ की चिंता से जीवन घटाता जाएगा
लड़े बिना ही जीवन युद्ध गर तू हार जाएगा
धिक्कारेगा तेरा ही ह्रदय कायर कहलाएगा

                                 भारती चौधरी


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