साहित्य चक्र

11 August 2020

सभ्यता की गोद में हमारे पूर्वज और हमारी वर्तमान पीढ़ी




हर भग्नावशेष में हमारे पूर्वजों की हड्डियां मिलती हैं
मिलते हैं पीतल के बर्तन
खुरपी,कुदाल और पत्थर के औजार
उसमें सिसकती लाखों बहनों के आँसू
बिलखते बच्चों की चीखें
चीत्कार करती माताओं के
जिस्म पर कोड़ों की बारिस वाली पीठ
और न जाने क्या क्या...

हमारे पूर्वजों ने पहाड़ का सीना चीरकर रास्ता बनाया
हमारे पूर्वजों ने समुद्र में गोता लगाकर मोती चुना
हमारे पूर्वजों ने दिन रात मेहनत करके जिल्लत भरी ज़िंदगी जी
हमारे पूर्वजों ने शरीर पर फटे कपड़े पहन कर उन सामंती जिस्म पर चमकीले वस्त्र पहनाएं
हमारे पूर्वजों ने धरती को चीरकर सोना उगाया
हमारे पूर्वजों ने लहू लुहान जिस्म की धज्जियाँ उड़ा दी
ताकि हिंदुस्तान मुस्कुराता रहे।

हमारे पूर्वजों ने रामायण लिखी
हमारे पूर्वजों ने महाभारत लिखी
हमारे पूर्वजों ने सत्य अहिंसा का पाठ पढ़ाया
हमारे पूर्वजों ने धनुर्धारी के धनुष को उनकी भुजाओं में जकड़ दिया
हमारे पूर्वजों ने धरती को आकाश और आकाश को धरती बना दिया
फिर भी तुमने उन्हें राक्षस बनाया,जल्लाद बनाया
शूद्र बनाया,मक्कार बनाया,गद्दार बनाया
आखिर क्यों???ऐसा क्यों किया तुमने
क्यों क्यों क्यों क्यों क्यों क्यों....

मैंने देखा है वर्तमान पीढ़ी को भी
मैंने देखा है गड्ढों को भरते हुए भी
मैंने देखा है गड्ढे खोदते हुए
मैंने देखा है उसमें दबकर मरते हुए
मैंने देखा है उन्हें गाली सुनते हुए भी
मैंने देखा है उन्हें मार खाते हुए भी
मैंने देखा है उन्हें मरते हुए भी
यह मेरा देखना 21 वीं सदी का भयानक सच है
आजाद भारत का क्रूरतम दृश्य है
फिर भी तुम किस मुँह से मेरे आगे अपने पूर्वजों के गुणगान की बात करते हो
तुम कैसे मेरे सामने जय जय का नारा लगाने की बात करते हो
तुम कैसे दिन को रात ,रात को दिन कहने की बात करते हो,कैसे,कैसे,कैसे,कैसे,कैसे,कैसे....

जानते हो हर रोज मेरी नींद में हमारे पूर्वज आते हैं
अपना ज़ख्म दिखाते हैं और सपनें की तरह विलीन हो जाते हैं
उनका नग्न बदन वनमानुष चेहरे देखकर मैं विचलित हो जाता हूँ
वह चीखती चिल्लाती आवाजें मेरी नींद की धज्जियाँ उड़ा देती है
उनकी कुदाल की खटखट मेरे कानों के आसपास मच्छर की तरह भिनभिनाते रहते हैं
वह मच्छर मुझे काटता है,जगाता है और धिक्कारता है
अगर मैं मारने की कोशिश करता हूँ ,
तो वह मुझपर एक साथ टूट पड़ता है
अपने जमात में शामिल कर लेना चाहता है
मैं बेबस लाचार होकर उनको देखता हूँ
और सोचता हूँ इस समाज की जातिगत व्यवस्था पर
धर्म गत व्यवस्था पर
शोषण आधारित कूव्यवस्था पर
आदि आदि पर ....

मैं अब मच्छर बनकर मरना नहीं चाहता हूँ
मैं अब मजदूर बनकर मरना नहीं चाहता हूँ
मैं अब अपनी माँ बहन के बदन को नोचता देखकर चुप रहना नहीं चाहता हूँ
मैं नहीं चाहता हूँ कि हमारी पीढ़ी घंटी बजाए
मैं नहीं चाहता हूँ कि हमारी पीढ़ी झंडा ढोए
मैं नहीं चाहता हूँ कि हमारी पीढ़ी सांप्रदायिकता के आगोश में हाथ में तलवार लेकर मर जाए
मैं नहीं चाहता हूँ कि वह किसी की जी हुजूरी करें
मैं नहीं चाहता हूँ कि वह अपना स्वाभिमान बेचकर जिंदा रहे
मैं नहीं चाहता हूँ कि हमारे पीढ़ी का नाम इतिहास में दर्ज न होकर भग्नावशेष बनें और उन्हें मिट्टी का मात्र ढेला समझे
इसलिए आओ मेरे भाइयों हाथों में कलम लो
माथे पर कफ़न बांधों,जमीन को कागज बनाओ
सड़क पर उतर कर,,, "धन धरती राजपाठ पर
नब्बे भाग हमारा है ",,,का नारा लगाओ
आओ मांगों अपना अधिकार
अपने पूर्वजों के रक्त का हिसाब लो
सभ्यता की विकास गाथा में शिकार हुई
पहली औरत माँ बहन का हिसाब लो
मर जाओ मिट जाओ
कलम-कागज-सत्ता-अधिकार के लिए।


                                   -तेजप्रताप कुमार तेजस्वी
                                    दिल्ली विश्वविद्यालय


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