तेरे शहर में फिर से आना चाहता हूँ मैं
मेरा दिल फिर से जलाना चाहता हूँ मैं
जो आग लगी लेकिन फिर बुझी नहीं
उसी राख से धुआँ उठाना चाहता हूँ मैं
इक दरख्त पे अब भी तेरा मेरा नाम है
उसे अब शाख से मिटाना चाहता हूँ मैं
तेरे नाम के किताबों में जो गुलाब हैं
उन सब को घर से हटाना चाहता हूँ मैं
जितनी भी उम्र बढ़ाई तेरी मोहब्बत ने
वो एक-एक लम्हा घटाना चाहता हूँ मैं
कैसे जिया जाता है किसी से बिछड़के
बड़े गौर से तुमको बताना चाहता हूँ मैं
सलिल सरोज
No comments:
Post a Comment