साहित्य चक्र

23 August 2020

चले गए

कुछ दोस्त दोस्ती यूँ निभा कर चले गए
 गम को मेरे हँसी में उड़ा कर चले गए।

वो नींद से भी मुझको जगा कर चले गए 
कुछ ख्वाब मेरी आंख में आकर चले गए।

मेरी करी का मोल तो जाना नहीं कोई 
अहसान मुझ पे अपने गिना कर चले गए।

ये खेल सियासतदां हम से खेलते रहे।
 खाया भी जम के और पचा कर चले गए।

हमने सहे फरेब बहुत गम नहीं मगर 
ये चाल ज़माने की सिखा कर चले गए ।

शिक्वा किया ना प्यार की ही कोई बात की
 दहलीज तक वो आज क्यों आकर चले गए।

उड़ने का ख्वाब जिसने दिखाया निगाहों को
दिव्या वो पंख खुद ही जला कर चले गए।

                                               दिव्या भसीन कोचर 



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