हे सुनो जी,
जानते हो,
तुमसे कुछ कहना है,
तुम्हें कुछ बताना है,
पता है,
तुम अंदर बहुत तक कुछ यूँ उतर गए हो फर्क नहीं कर पा रही हूँ कि तुम हो या मैं हूँ।
तुम भीतर बहुत भीतर तक कुछ यूँ उतर गए हो कि तय कर पाना मुश्किल है, तुममे और मुझमें कौन कहाँ हैं??तुम इस तरह मेरे अन्तरम समाए हो कि मेरी पाँचो ज्ञानेन्द्रियों कर्मेन्द्रियों ने बाँहे फैलाकर तुम्हारा सहर्ष स्वागत किया है।
मेरी प्रत्येक क्रिया प्रत्येक प्रतिक्रिया पर मानो तुम ही तुम रचे बसे हो।तुम इस तरह मुझमें उतरे हो कि मैं बिना पलकें खोले,तुम्हारे साथ अपने अन्तरम तक भ्रमण कर आती हूँ।
तुम्हें सुनने के लिए मुझे तुम्हारे कहने की आवश्यकता नहीं तुम्हारे हृदय से उठने वाली प्रत्येक धड़कन सरगम सदृश समस्त संगीत बन प्रस्तुत कर जाती है।
तुम्हारी सुगंध मुझमे इस तरह से व्याप्त है कि मैं स्वयं ही सुगन्धित हो जाती हूँ।
तुम्हें स्वाद रूप में पाने हेतु मुझे तुम्हारे सानिध्य की आवश्यकता नहीं स्वाद रूप में तुम मेरी आवाज मेरा आगाज बन जाते हो।
तुम्हारा स्पर्श मेरी रोमावली के कण कण में कुछ ऐसे व्याप्त है कि प्रत्येक रोम के कण कण में तुम चंद्रआभा बन प्रकाशवान कर रहें हो।
तुम तर्क के प्रत्येक काट तक सफर कर मुझमे प्रवेश कर गए हो।तुम तथ्य रूप में सदा सर्वदा मुझमे यूँ विद्यमान हो कि समस्त शर्ते स्वतः ही सीमाओं के बंधन छोड़कर आ गए है।
सभी तत्व जो पंचतत्व स्वरूप है तुम्हारा रूप धारण कर मुझमे समा गए हैं। जानते हो कैसे,धरती सा धैर्य जो तुममें हैं, शायद वही है जो मुझे धीरज व धैर्य का पाठ पढ़ा जाते है।आकाश से विशाल तुम्हारा हृदय जिसमें अचल ब्रह्मांड समा जाएं उसमे तुमने अपनी विशालता से मुझे भी समान लिया है,मेरे समूल के साथ।
जल सी तरलता जो तुममे है मेरे प्राण ,,,,वो तुम ही तो हो जो कभी कभी मेरे नेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।अग्नि से तेज जिसका तुम प्रतीक हो उसका प्रतिबिंब ही तो है जो मुझमें आलोक व उल्लास भर मुझमें प्रतिपल जीवंतता प्रदान करता है। वायु जो प्राण भी है तुम ही तो हो जो मुझमें प्रतिपल प्रतिक्षण प्रवाहित होती जा रही है।मैं कैसे कह सकती हूँ तुम मेरे प्राण हो ,,,तुम प्राण ही तो हो जो वायु का रूप लेकर मुझमें सदा सर्वदा प्रवाहित होते रहते हो।
तुम प्राण हो मेरी आत्मा में सदा सर्वदा तुम्हारा ही तो वास है।मेरी आत्मा तुम्हारा ही प्रतिबिंब ही तो है मात्र। शुद्ध आत्मा ही परमात्मा तक पहुँचने का सहज सिद्ध साधन है और तुम्हारा प्रेम,तुम्हारा ध्यान, तुम पर मान, तुम्हारा ज्ञान ही मुझे व मेरी आत्मा को सदा सर्वदा परिष्कृत करता रहता है।
तुम व्यान सदृश मेरी रचना से परे, समान सदृश मुझमें बसे,अपान सदृश मुझमें प्रवाहित, उड़ान सदृश मुझे संचालित, प्राण तक बन कर मुझमे स्थित होते हो।
तुम हाँ तुम,तुम ही तो हो मुझे परम् का ज्ञान दिलाने वाले यदि आत्मा से मेरा परिचय हुआ है तो, वह भी तो तुम्हारे द्वारा ही सम्भव हो पाया है,और आत्मा को परिष्कृत करने की प्रक्रिया में तुम्हारा साथ ही तो मुझे सफल बनाने को उदग्र रहता है।मेरी आत्मा का यदि परमात्मा से कोई सम्बन्ध है तो वो तुम हो।तुम मेरी आत्मा नहीं परमात्मा हो और मैं तुम्हारा एक अंश।आत्मा का परमात्मा से मिलन में यह देह ही बाधा है, अन्यथा हमारी आत्मा परमात्मा में सदा सर्वदा ही विद्यमान रहती है। तुम परमात्मा हो और मैं तुम्हारी अंश रूपी आत्मा।अतः हम कभी न विलग थे न है न ही होंगे।तुम मुझमें रूप,रंग,गन्ध,धूप सदृश सदा विद्यमान हो और तुममें मैं एक अंश रूप में सदा विलीन।
अक्षर,शब्द,वाक्य,काव्य,रचना से ऊपर है तुम्हारा प्रेम।इस संसार के समस्त शब्दों को यदि समेट लिया जाए, इस संसार के समस्त व्याकरणों का यदि अध्ययन कर लिया जाए,समस्त भावों को यदि एकत्रित कर तुम्हारे लिए रख दिया जाएं।तो भी हमारे प्रेम का वर्णन करना दुष्कर हो जाएगा। किसी एक शब्द से मैं तुम्हारी व तुम्हारें प्रेम की व्याख्या नही कर सकती।किसी एक वाक्य एक काव्य एक रचना से मैं तुम्हारें प्रेम को परिभाषित नहीं कर सकती।तुम्हारा प्रेम इन सबसे ऊपर कहीं ऊपर हैं।
हे ईश्वर! हमारा प्रेम सदा बनाएं रखना ताकि तुम्हारा स्मरण मुझमें प्रतिपल प्रतिक्षण बना रहे।।
आकांक्षा सिंह
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