साहित्य चक्र

28 November 2022

सुंदर-10 गज़लें पढ़िए



पहली गज़ल


ज़िन्दगी में वो मुकद्दर का सिकंदर निकला
उसने पत्थर भी छुआ गर तो वो गौहर निकला

बर्ग-ए-गुल बिखरी हैं राहों में फ़ज़ा महकी है
कौन दिलदार मुहब्बत के सफ़र पर निकला

आज इस दिल में ख़लिश सी कोई महसूस हुई
आज महबूब मेरा घर से सँवर कर निकला

यूँ हर इक गहना मेरे यार पे फबता था मगर
जो बनाता था हसीं प्यार का ज़ेवर निकला

मैंने बस प्यार ही मांगा था वफ़ा के बदले
दे गया हिज्र वो उम्मीद से बढ़कर निकला

मैं जिसे ढूँढती रहती थी पराए दर पर
वो सुकूँ जिसमें समाया था मेरा घर निकला

वो नदी प्यास बुझाकर भी रही मीठी ही
आब पीता रहा जो खारा समंदर निकला

अब रुलाएगा नहीं तर्क-ए-मुहब्बत 'मीरा'
दर्द इस बार मेरे ज़ेहन से डरकर निकला

*****


दूसरी गज़ल

ये मुल्क़ तुम्हारा है ये मुल्क़ हमारा है
ये मुल्क़ रिआया के जीने का सहारा है

इस मुल्क़ की ख़ातिर ही दी जान है वीरों ने
इस मुल्क़ ने जब-जब भी अपनों को पुकारा है

पुरवाई चले जब भी तेरी ही महक आए
तेरा ही तसव्वुर है तेरा ही नज़ारा है

सागर में तेरे बहती दौलत है मुहब्बत की
जो डूब गया इसमें पा लेता कनारा है

हर सिम्त है हरियाली हर सिम्त बहारें हैं
मैं देखूं वतन मेरा खुशियों का पिटारा है

गंगा की यहाँ मौज़ें यमुना की वहाँ लहरें
पर्वत से गिरें झरने क्या खूब नज़ारा है

लगते हैं यहां लंगर हर रोज़ मुहब्बत के
सो जाए कोई भूखा हमको न गवारा है

हम प्यार के मरहम से हर जख़्म सँवारेंगे
इक दर्द हमारा है इक दर्द तुम्हारा है

इस मुल्क़ का हर बच्चा इस मुल्क़ का पहरेदार
दुश्मन तू सँभल जाना हर दिल में शरारा है

मोमिन है तो ग़ालिब भी 'मीरा' है तो तुलसी भी
ये मुल्क़ मेरा यारो हर आँख का तारा है

*****


तीसरी गज़ल

कभी साग़र कभी साक़ी कभी पर छीन लेता है
ये कैसा इश्क़ है जो देके अक्सर छीन लेता है 

वज़ूद उसका रहे है ज़ेहन पर कुछ इस तरह तारी
कि ख़्वाबों में भी आकर मेरा पैकर छीन लेता है

कहाँ से हौसला पाता है वो ये तो ख़ुदा जाने
उतरता है नदी में और समंदर छीन लेता है

अगर मैं आइना देखूँ वहाँ भी अक्स है उसका 
वो मेरी हर वजूद-ए-शय से जौहर छीन लेता है

भरूँ मैं आह कितनी वो नहीं सुनता सदा मेरी
मगर जब ख़ुद पे आता है तो हर डर छीन लेता है

मुकद्दर का सिकंदर ही लगे है तब मुझे मेरा
जबीं से जब वो मेरी दुख के तेवर छीन लेता है

न जाने भेद कैसे जान लेता है मेरे दिल के
छुपाकर लाख रख लूँ ग़म वो दिलबर छीन लेता है

भरा करता है मेरी मांग बस उल्फ़त के गौहर से
वो 'मीरा' का सनम है नकली जेवर छीन लेता है

*****


चौथी गज़ल

वो दिल देता है पहले फिर मेरी मत छीन लेता है
मुहब्बत के बहाने से नदामत छीन लेता है

वो मुझसे दूर होता है तो रंगत छीन लेता है
मगर जब पास आता है सबाहत छीन लेता है

न जाने क्या फ़ुसूँ  है उस फ़ुसूँगर की मुहब्बत में
पिघल जाती हूँ बाहों में तो क़ामत छीन लेता है

नहीं रहती हूँ मैं तन्हा कभी भी आ धमकता है
मेरी तन्हाइयों तक से वो ख़ल्वत छीन लेता है

कभी देखा नहीं उसको मगर रहता है ख़्यालों में
मैं महव-ए-ख़्वाब होती हूँ तो फ़ुर्क़त छीन लेता है

किसी के पास आ जाने से दूरी कम नहीं होती
वो ऐसा कहके तन की सारी दौलत छीन लेता है

वो दौर-ए-आशिक़ी आया कि ख़ुद को भूल ही बैठी
मैं देखूँ आइना भी गर तो सूरत छीन लेता है

रही 'मीरा' न अब 'मीरा' दिवाना कर दिया उसने
नज़र भर देखता है और बसीरत छीन लेता है


*****


पाँचवीं गज़ल

वो मेरे रू-ब-रू जब से हुआ है
लगा जैसे वही दिल का ख़ुदा है

हवाओं में है पहचानी सी खुश्बू
सुना है शह्र में ही दिलरुबा है

जरा दिल तक क़रीब आओ हमारे
तुम्हारी क़ुर्बतों में फ़ासला है

खुमार इसका नहीं उतरेगा अब तो
नहीं सहबा ये उल्फ़त का नशा है

हमें बहका नहीं सकता ज़माना
मुहब्बत ही हमारा फ़ैसला है

कहाँ तक साथ देते ग़म हमारा
खुशी मंज़िल खुशी जब रास्ता है

चुराता ही रहा नज़रें वो मुझसे
मेरे हाथों में जब से आइना है

ये दिल सुनता कहाँ है बात 'मीरा'
सदा ही ज़ेहन से रूठा रहा है


*****


छठीं गज़ल

ऐ दिल तुझे जहान में उर्यां न कर सके
पर राज़-ए-आशिक़ी भी तो पिन्हाँ न कर सके

हम दिल की हसरतों का भी सामाँ न कर सके
इतने ग़रीब थे उसे मेहमाँ न कर सके

बस दिल ही दिल में करते रहे प्यार यार से
मजबूरियाँ वो थीं कि कभी हाँ न कर सके

अरमाँ तो थे कि दूर फ़लक तक उड़ा करें
अफ़सोस रेत को कभी कोहाँ न कर सके

औरों के घर में शम्अ जलाते रहे मगर
इस दिल की ज़ुल्मतों को चरागाँ न कर सके

उस दिल-शिकन से क्या करें शिकवे वफ़ा के हम
जब ख़ुद ही अपना प्यार नुमायाँ न कर सके

तन्हा ही चाँद आया था उस रोज़ बाम पर
हम फिर भी दिल की शम्अ फिरोज़ाँ न कर सके। 

ऐसा नहीं कि इश्क़-ओ-मुहब्बत नहीं हमें 
ये और बात है उसे जानाँ न कर सके

बेशक़ नहीं नसीब में बज़्म-ए-चमन रही
पर आशिक़ी को ख़ार-ए-बयाबाँ न कर सके

फिर याद आ गया वो जुदाई का हादसा
फिर हम नशात-ए-रूह का अरमाँ न कर सके 

शाही-मिजाज़ का है वो 'मीरा' इसीलिए
हम अपने दिल के दर्द को अर्ज़ां न कर सके

*****


सातवीं गज़ल

आया हूँ तेरे दर पे तुझे ख़्वार देख कर 
इकरार कर ले अब तो मेरा प्यार देख कर 

तड़पा था रात-दिन तेरी दीवार देख कर
अब हो गया हूँ मुतमइन दीदार देख कर 

हमने सुना था राह-ए-मुहब्बत है पुर-ख़तर
घबराता कौन है उसे पुर-ख़ार देख कर 

कब तक डराएँगे मुझे राह-ए-वफ़ा के ख़ार
घबरा न जाएँ ख़ुद ही मेरा प्यार देख कर

आया जो यार दर पे मेरा हाल पूछने
दिल बाग-बाग था मुझे बीमार देख कर 

जो आशिक़ी में फूल खिलाता था रात-दिन
उठता है दर्द दिल में उसे  ख़्वार देख कर 


*****


आठवीं गज़ल

आया हूँ तेरे दर पे तुझे ख़्वार देख कर 
इकरार कर ले अब तो मेरा प्यार देख कर 

तड़पा था रात-दिन तेरी दीवार देख कर
अब हो गया हूँ मुतमइन दीदार देख कर 

हमने सुना था राह-ए-मुहब्बत है पुर-ख़तर
घबराता कौन है उसे पुर-ख़ार देख कर 

कब तक डराएँगे मुझे राह-ए-वफ़ा के ख़ार
घबरा न जाएँ ख़ुद ही मेरा प्यार देख कर

आया जो यार दर पे मेरा हाल पूछने
दिल बाग-बाग था मुझे बीमार देख कर 

जो आशिक़ी में फूल खिलाता था रात-दिन
उठता है दर्द दिल में उसे  ख़्वार देख कर 


*****


नौवीं गज़ल

मुझको हुई मुहब्बत उस शोख़ दिल-सिताँ से
रहता है बे-ख़बर जो मेरे हर इक फ़ुग़ाँ से

दिखता है सीधा-सादा पर पूरा जादूगर है
मुझको चुरा है लेता मेरे ही ज़िस्म-ओ-जाँ से

पहले जरा ये देखें उस बुत के मन में क्या है
तब बात वो कहेंगे हम उस मिज़ाज-दाँ से

कैसे कहेंगे उससे हमको भी है मुहब्बत 
गुफ़्तार जो न करता अब अपनी जान-ए-जाँ से

कब से खड़ा हूँ दर पे सुनने को हाँ तुम्हारी
ख़ामोशियाँ न ओढ़ो कुछ तो कहो ज़बाँ से

हर सिम्त बेरुख़ी है हर सिम्त है अदावत
मिलता न दिल हमारा इस बे-वफ़ा जहाँ से

ख़ैरात में मिले गर लेना नहीं मुहब्बत
तुम हाथ खींच लेना उल्फ़त की दास्ताँ से

चल आजमा ले पहले 'मीरा' को हर तरह से 
फिर करना आशिक़ी तू उस हुस्न-ए-बद-गुमाँ से


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दसवीं गज़ल

ज़िन्दगी में वो मुकद्दर का सिकंदर निकला
उसने पत्थर भी छुआ गर तो वो गौहर निकला

बर्ग-ए-गुल बिखरी हैं राहों में फिज़ा महकी है
कौन दिलदार मुहब्बत के सफ़र पर निकला

आज इस दिल में ख़लिश सी कोई महसूस हुई
आज महबूब मेरा घर से सँवर कर निकला

यूँ हर इक गहना मेरे यार पे फबता था मगर
जो बनाता था हसीं प्यार का ज़ेवर निकला

मैंने बस प्यार ही मांगा था वफ़ा के बदले
दे गया हिज्र वो उम्मीद से बढ़कर निकला

मैं जिसे ढूँढती रहती थी पराए दर पर
वो सुकूँ जिसमें समाया था मेरा घर निकला

वो नदी प्यास बुझाकर भी रही मीठी ही
आब पीता रहा जो खारा समंदर निकला

अब रुलाएगा नहीं तर्क-ए-मुहब्बत 'मीरा'
दर्द इस बार मेरे ज़ेहन से डरकर निकला

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                                           लेखिका- मनजीत शर्मा 'मीरा'



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