साहित्य चक्र

24 November 2022

कविताः आख़िर जिंदगी


हां सभी तो अपने ही थे 
उनका गिला क्या करते,
ज़ख्म भी गहरे थे सभी
उनको अयाँ क्या करते, 
तेरी मसरूफियत तो 
हमको पता है सारी, 
तेरे आने की खुशी वादों 
पे यकीं क्या करते, 
जब सितारे भी हाथों से
निकले रफ़्ता रफ़्ता, 
फिर चांद को पाने की
आरज़ू बता क्या करते, 
वह मुसाफ़िर था हमसे
वफ़ा क्यों कर करता , 
हम भी थे मजबूर दिल से
अपने दगा क्या करते, 
खुली हवा में उड़ने का वह
आदी था नहीं समझे,
हाथ फैलाकर उसको बुलाते 
तो भला क्या करते, 
अव्वल आख़िर जिंदगी का 
मकसद ख़ाक है सुन लो, 
महल और अटारी हम भी बना
लेते तो बता क्या करते ,
ख्वाबों के जज़ीरे का नक्शा
आंखों में फिरा करता है,
बेसिम्त चल रही थीं हवाएं
"मुश्ताक़"बता क्या करते ?

                                        डॉ. मुश्ताक अहमद 


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