जब हम किसी से जुड़ते है उससे प्यार करते है सच मे खुद को जीते है खुद को ही आत्मसात करते है। हम सब अपूर्ण है मिलते है पूर्ण होने के लिए।हम अतृप्त हैं, अभिलाषा, आकांक्षा के बोधक । मन हमारा रिता रिक्त क्योंकि हम स्नेह नही प्रेम नही, भावनात्मक जुड़ाव नही समृद्धि चाहते है और समृद्धि अतिशीघ्र नई रिक्तता में बदल जाती है।
कुछ लोग ऐसे होते है जो निर्मल, अनछुए, अनभिज्ञ होते है दुनियावी प्रपंचों से । हम उनसे मिलते है , उनके कहे को सहजते है ,अपनी कहते है । वो सुरम्य, नि:सर्ग लगते है उनके बीच पहुंच कर हमें मनुष्यता का बोध होता है, लेकिन फिर कुछ दिनों बाद अपनी दुनियावी प्रपंची प्रवत्तियों से भस्मीभूत होकर फिर लौट जाते है मन के नये व्यापार को करने।
जीवन मे प्रकाशरत रहने के लिए यह जरूरी है कि किसी निर्मल, अनछुए, दुनियादारी से अनभिज्ञ व्यक्ति को धोखा न दें। बेशक आप उससे जुड़े न लेकिन अगर जुड़ें तो उस तरह से तो बिल्कुल भी नही जैसे दुनिया के कार्य- व्यापार के लिए लोगों से मिलते या क्षणिक जुड़ते है और कार्य निकल जाने पर उसकी जिंदगी से या तो खुद निकल जाते है या उसे निकाल देते है।
अगर जीवन को मधु अभिलाषा के साथ जीना है तो अपनी मन की प्रकृति के नियम को सुव्यवस्थित करें। यकीन मानिए आपके साथ, आपके पास जो होगा सिर्फ आपका होगा उम्र भर के लिए।
मानवीय संवेदनाओं को कुचालक न होने दें मन के एकांत को प्रेम स्थल बना रहने दें। प्रेम- एक असमाप्त सतत संशोधनीय कविता जैसा लेकिन कविता नही। यह याद रखना जरूरी है। प्रेम का आचमन आत्मा को पवित्र करता है !!
लेखिका- डॉ किरण मिश्रा
No comments:
Post a Comment