साहित्य चक्र

21 November 2022

कविताः पद्मानदी और माझी





उफनती नदी को देख
सोचा कि पूछ लूँ
क्या सच में तुम्हारी धारा में कल
तैर रही थी कोई नाव ?

पूछ नहीं पाया
नदी तो होती है एक विस्मय
एक रास्ता, एक पायदान
कभी दक्षिणी हवा
तो कभी बड़ा ही कठिन है वहाँ
ढूंढ पाना खुद को,
अंदर की रफ्तार सच में
कितना प्रबल है।

मौन आकाश के खुले मैदान में
नदी और धरती हैं आमने-सामने।

उफनती नदी से वैसे भी
पूछने का अर्थ क्या नाव के बारे में,
अभी-अभी समझ रहा हूँ
एक नदी छुपी होती है सीने में
हर एक नाव के,
सब कुछ एक जैसा वहाँ
तैरना, भूलना, डूब जाना,
वहाँ का मैथुन हो या आत्म निर्वासन
बहाव में खींचे चले जाते हुए
कौन किसको आसरा दे सकता है ?

कौन किसकी टूटी हुई कुर्सी
और पैबंद लगी टोपी को
नदी की तेज धारा से
उबार सकता है?


ओड़िआ से अनुवाद: राधू मिश्र


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