साहित्य चक्र

22 November 2022

कविताः कोयला



कोयले में दिनभर काम करने से 
 कैसा होगा आदमी काला
 गन्दे होंगे कपड़े हाथ पैर सब
 क्या शक किया जा सकता है 
 उनके नीयत पर
 क्या हो भी हो सकती है काली
 उसमें भी भरी होती है चमचा चापलूसी 
 चोरी चमारी आदि जैसे शब्द।

हो सकते हैं वो भी ग़लत
बेख़ौफ़ होकर रिकार्ड कहते हैं
आज अपने का विकास अपना नहीं
देख सकता नग्न आंखों से
खैर वे तो कई घरों से आते हैं
वहां भी चलती है एक राजनीति
बनते हैं अपने आप में साहब सब के सब।

अगर कभी इनके चमड़े का दाम लगाया
जाय और कि जाय इनकी 
मेहनत की निलामी
कितने खरीददार आएंगे सामने
खरीदने उस चमड़े को जो वर्षों से तप रहा
कोयले की खान में
कितना होगा इनका दाम
कभी कभी इनके परिश्रम प्रश्न चिन्ह
लगा देते हैं बड़े बड़े अनुच्छेदों पर।


                      लेखक- आलोक रंजन


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