साहित्य चक्र

21 November 2022

कविताः काश कोई लौटा दे


फोटो सोर्स- गूगल



बूंदे बनकर बिखर गया था समय 
और मैं समेट रही थी यादों की तरह ,
अपनी हथेलियों में,
कहीं मिल जाए वो घर जो रेत से बनाए थे कभी ,
जीते हुए कंकर के टुकड़े दोस्तों से छुपाए थे कभी ,
कहीं फिर से मिल जाए वो खेलता हुआ बचपन ,
कहीं मिल जाए सखियों से भरा हुआ घर आंगन,
वो समय ढूंढती हूं कहीं पुराने बक्से में,
कहीं किसी खूंटी पर कहीं किसी बस्ते में ,
वो समय और था सभी घर अपने लगते थे,
रिश्ते सच्चे लगते थे , सभी अपने से लगते थे,
कहां खो गई वो खेतों के बीच की पगडंडियां ?
वो बैठक , वो चौपालें और मक्खन भरी हांडियां,
अब जिंदगी में पहले जैसा कुछ भी ना रहा ,
जैसे पल गुजरे थे, अब पहले सा कुछ ना रहा ,
मुझको याद है अब भी वो कागज की नाव
काश! लौटा दे मुझे समय मेरा वो प्यारा सा गांव
मुड़ेरों पर झांकता हुआ अल्हड़ सा बचपन ,
आंगन में नीम की मीठी सी छांव

लेखिका- मंजू सागर 

1 comment:

  1. मेरी रचना को अपनी पत्रिका ने स्थान देने के लिए धन्यवाद दीपक जी

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