साहित्य चक्र

24 November 2022

पढ़िए मनजीत शर्मा जी की सुंदर और दिल छूने वाली 10 गज़लें



।। पहली गज़ल ।।

सिर्फ़ ज़ाहिर थी सादगी दिल की
जान पाई न साहिरी दिल की
क्यों दिखाता है सरकशी दिल की
बात सुन ले कभी दुखी दिल की
जब से तूने निगाह फेरी है
रास आई न सर-ख़ुशी दिल की
हर किसी को कहाँ मयस्सर है
हाय क्या चीज़ है ख़ुशी दिल की
कह न पाई मैं हाल-ए-दिल उनसे
बात दिल में ही रह गई दिल की
भेद मेरे सभी पता हैं उन्हें
कौन करता है मुख़बरी दिल की
कुछ तो रख आजिज़ी अदावत में
हम भी देखें कुशादगी दिल की
बज़्म है यार है समाँ भी है
आज तो छेड़ रागनी दिल की
दर्द-ए-दिल से मुझे बचाया है
याद रखूँगी मुख़्लिसी दिल की
दुश्मनों से भी दिल लगा बैठे
कितनी मासूम है लगी दिल की
उसकी महफ़िल में जाएंगे 'मीरा'
जो सुनाएगा शाइरी दिल की

*****


।। दूसरी गज़ल ।।

दर्द भरे जज़्बात न दे
रात के आगे रात न दे
दुनिया बैठी नमक लिए
इश्क़ के तू सदमात¹ न दे
जिनसे भड़के दर्द-ए-दिल
हाय वो नग़्मात² न दे
ज़िंदा रख उसकी हस्ती
सहरा³ को बरसात न दे
जिसके दिल में दर्द नहीं
उसको क़लम दवात न दे
कुछ बातें दिल में भी रख
काग़ज़ को हर बात न दे
कर्म का जज़्बा दे मौला
झोली में ख़ैरात⁴ न दे
जीत को जीने दे कुछ पल
इतनी जल्दी मात⁵ न दे
देनी हैं तो दे खुशियाँ
अश्कों की सौग़ात न दे
घुट-घुट मर जाए 'मीरा'
ऐसे तो हालात न दे

*****

।। तीसरी गज़ल ।।

तू मेरा है तो मुझे प्यार तो कर
मेरे दिल को कभी बीमार तो कर
ख़ार-ज़ारों¹ से घिरी रहती हूँ
मेरी हस्ती गुल-ओ-गुलज़ार तो कर
ख़ुद को परवान² समझ लूंगी सनम
इश्क़-ओ-उल्फ़त में मुझे ख़्वार³ तो कर
तेरी जानिब⁴ मैं बढ़ा दूंगी ये लब
तू मेरे सामने रुख़सार⁵ तो कर
इनके पेचों में उलझना है मुझे
ज़ुल्फ़ अपनी ज़रा ख़म-दार⁶ तो कर
मेरी उल्फ़त को समझने के लिए
पहले ख़ुद को तू समझदार तो कर
वार दूंगी मैं मुहब्बत तुझ पर
पर मुझे प्यार से ज़रदार⁷ तो कर
लाँघ आएगी समंदर 'मीरा'
पर नदी तू भी कभी पार तो कर

*****


।। चौथी गज़ल ।।

जो मेरे सुख़न¹ में नहीं रूह कोई
तो फिर इस चमन में नहीं रूह कोई
तग़ज़्ज़ुल² बिना हाल लफ़्ज़ों का वो है
कि जैसे बदन में नहीं रूह कोई
गए दौर में शम्अ जलती थी दिल की
है अब अंजुमन में नहीं रूह कोई
हुई जब से तुझको मुहब्बत से नफ़रत
रही तेरे फ़न³ में नहीं रूह कोई
अदाकारी लगती है तेरी मुहब्बत
नहीं बांकपन में नहीं रूह कोई
दिखावा किया क्यूँ तेरे पास दिल है
दिखी तेरे तन में नहीं रूह कोई
गिरा जब से बरसों पुराना शजर⁴ है
तभी से सहन में नहीं रूह कोई
वुज़ु⁵ दिल का तुमने नहीं गर किया है
तो फिर इस भजन में नहीं रूह कोई
अलग हो गई आज 'मीरा' बदन से
नहीं इस कफ़न में नहीं रूह कोई

*****


।। पांचवी गज़ल ।।

आपके साथ जो चला होगा
वो मुहब्बत का देवता होगा
इश्क़ यूँ ही नहीं हुआ होगा
देखकर हुस्न वो मिटा होगा
जो उतारे से भी न उतरे कभी
चश्म-ए-ख़ूबाँ में वो नशा होगा
तुम दिखोगी जहाँ पे सबसे हसीं
वो मेरे दिल का आइना होगा
खूबसूरत जो कहते हैं ख़ुद को
आइने ने उन्हें छला होगा
जो मेरी हर ख़ता मुआफ़ करे
वो यक़ीनन मेरा ख़ुदा होगा
नफ़रतों की सिरात क्यूँ जाएँ
प्यार का भी तो रास्ता होगा
ख़ुद की नज़रों में उठ नहीं सकता
मेरी नज़रों से जो गिरा होगा
क्यों डरेगा वो ख़ारों से 'मीरा'
इश्क़ की राह जो चला होगा

*****


।। छठी गज़ल ।।

प्यार की रिमझिम फुहारें और वफ़ाएँ हैं कहाँ
वो जो जिनसे दिल बहलता था अदाएँ हैं कहाँ
सादगी पर क्यूँ न उनकी हो रहूँ कुर्बान मैं
जो हमीं से पूछते हैं कि बलाएँ हैं कहाँ
तन-बदन तो कर दिया है ठीक ऐ चारागरो¹
मन को भी कर दें जो चंगा वो दवाएँ हैं कहाँ
छोटे से छोटे हुए जाते हैं अब तो पैरहन²
जो दुपट्टे में सिमटती थीं हयाएँ³ हैं कहाँ
ख़ाक हो पाया नहीं परवाना उसके इश्क़ में
शम्अ रखती थीं जलाकर वो हवाएँ हैं कहाँ
तेरे चेहरे पर जो आती थीं मेरा रुख़⁴ देखकर
ऐ सनम यह भी बता दे वो शुआएँ⁵ हैं कहाँ
हर बशर से यूँ ही मिल जाती थीं 'मीरा' मुफ़्त में
नफ़रतों के इस जहाँ में वो दुआएँ हैं कहाँ


*****

।। सातवीं गज़ल ।।

कभी तेरी ज़ुल्फ़ों के ख़म¹ देखते हैं
कभी तेरे रुख़सार² हम देखते हैं
नज़र को बचाकर सनम देखते हैं
अजी ये न समझो कि कम देखते हैं
कभी दुश्मनों के करम देखते हैं
कभी दोस्तों के सितम देखते हैं
कभी देखते हैं तुम्हारी ख़ुशी को
कभी अपने दिल के अलम³ देखते हैं
सुखा लेते हैं अपनी आँखों के आँसू
अगर तेरे दीदा-ए-नम⁴ देखते हैं
नहीं हमने देखा किसी मह-ज़बीं⁵ को
तुझे ही सनम दम-ब-दम⁶ देखते हैं
फ़क़त देखते हैं मुहब्बत भरे दिल
नहीं कोई दैर-ओ-हरम⁷ देखते हैं
इसी ने लिखे हैं मुहब्बत भरे ख़त
मेरे हाथ में जो क़लम देखते हैं
सभी देखते हैं मेरी शान-ओ-शौकत
नहीं मेरे दिल का अदम⁸ देखते हैं
अदावत⁹ का होने लगा बोलबाला
मुहब्बत को ज़ेर-ए-क़दम¹⁰ देखते हैं
बहुत होती है दिल को तक़लीफ यारो
किसी का निकलता जो दम देखते हैं
उन्हें अब नहीं देखना हमको 'मीरा'
जो हर बात में बस रक़म देखते हैं

*****


।। आठवीं गज़ल ।।

कहने को मुहब्बत के तरफ़-दार हज़ारों
बर्बाद हैं पर इश्क़ में घर-बार हज़ारों
तू प्रेम की राहों पे क़दम सोच के रखना
मिलते हैं ज़माने में अदाकार हज़ारों
जिस बुत को तराशे था हथौड़े का हर इक वार
उस बुत की निगाहों में थे आज़ार¹ हज़ारों
बचपन से निकलकर तू जवानी में क़दम रख
आने हैं तेरे सामने संसार हज़ारों
यारी में जिसे हमने थमाए थे कभी फूल
आया है मेरे दर पे लिए ख़ार² हज़ारों
सब अपना ही दुख-दर्द सुना कर गए मुझको
कहने के लिए आए थे ग़म-ख़्वार³ हज़ारों
बस मेरी मुहब्बत पे ही लोगों की नज़र थी
दुनिया में यूँ होते हैं ख़तावार हज़ारों
इक ज़हर का प्याला ही न 'मीरा' को दिया था
लोगों ने दिए थे उसे मुर्दार⁴ हज़ारों

*****


।। नौवीं गज़ल ।।

कार-ए-जहाँ¹ से हमको फ़राग़त² नहीं मिली
किस मुँह से अब कहें कि मुहब्बत नहीं मिली
कोई भी चीज़ वक़्त-ए-ज़रूरत नहीं मिली
जब तक रहे जहान में इज़्ज़त नहीं मिली
काग़ज़ के फूल से ही मुहब्बत रही जिन्हें
उनको भी ये गिला³ रहा निकहत⁴ नहीं मिली
थी वक़्त की कमी नहीं सिंगार के लिए
पर वस्ल⁵ के लिए उन्हें फ़ुर्सत नहीं मिली
जिस इश्क़ की तलाश में हम हो गए फ़क़ीर
उस इश्क़ की हमें कभी लज़्ज़त नहीं मिली
दिल ख़ाक हो गया है तेरे हिज्र⁶ में सनम
पर अब तलक ग़रीब को तुर्बत⁷ नहीं मिली
हमने तो बारहा⁸ ही दिखाया था आइना
पर उनको उसमें एक भी ग़फ़लत⁹ नहीं मिली
यूंँ ही हुआ है हर दफ़ा अपने नसीब में
दीवार तो उठी मिली पर छत नहीं मिली
फ़ुर्क़त में ही गुज़र गए 'मीरा' के माह-ओ-साल
फिर भी उन्हें इस इश्क़ में शिद्दत¹⁰ नहीं मिली

*****


।। दसवीं गज़ल ।।

आपकी आँखों में ख़ंजर¹ हो न हो
फिर भी चल जाएगा नश्तर² हो न हो
तेरी आँखों में ही डूबेंगे सनम
चाहे चाहत का समंदर हो न हो
चल चलें ऐ दिल विसाल-ए-यार को
कौन जाने फिर वो मंज़र³ हो न हो
मैं उसे अपने से ऊपर ही कहूँ
वो मेरे क़द के बराबर हो न हो
वो बताता है बढ़ाकर ही सदा
हाल उसका मुझ से बद-तर हो न हो
ख़ून का इल्ज़ाम होगा मुझ पे ही
मेरे हाथों में वो पत्थर हो न हो
चल चलें बज़्म-ए-सुख़न⁴ में आज फिर
फिर कोई ऐसा सुख़न-वर⁵ हो न हो
जो भी कहना आज ही कह लो उसे
कल कोई 'मीरा' से बेहतर हो न हो

*****

लेखिकाः मनजीत शर्मा 'मीरा'



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