अपने सपनों को जातें में पीसते,
धान के नन्हें पौध की जड़ों को
मिट्टी की गहराइयों में रोपते,
लंबी पगडण्डियों को तय करती हुई ,
उलाहनों की ठोकर खाते क्या
तुमने सोचा था कभी घूँघट उठा कोलतार की सड़कों पर चल सकोगी ?
जिसके नीचे दबी हैं पदयात्राएं तुमसे पहले भी कई पीढ़ियों की ।
मोटरगाड़ी में बैठ कर सही बताना
क्या तुम बिल्कुल निर्भीक थी
या घबराई थी बगल में बैठे द्विअर्थी संवादों से ,
वासनात्मक ठहाके जो सिर्फ तुम्हारी देह
को देखकर लगाये जा रहे थे ।
या बड़ी रेखा खींचने का सोच नाप आई हो सारा आसमान ।
अपने सशक्त हस्ताक्षर करते हुये
तुम्हारे कोमल हाथ काँपे तो न थे। रोशनाई बिखेरी
तो नहीं तुमने।
कैसे विस्मृत कर लेती हो तुम उस असह्य वेदना को
जो खुली हवा में साँस लेने के लिये बरसों-बरस मिलती रही
तुम्हें शरीर के साथ आत्मा को भी किया
गया लहूलुहान।
कहो न कहाँ से लाई इतनी शक्ति जिसने
कई पीढ़ियों की बनाई चौखट को लाँघने में तुम्हारी मदद की।
लेखिकाः अनिता तिवारी "देविका"
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