साहित्य चक्र

21 November 2022

कविताः कहो न






अपने सपनों को जातें में पीसते, 
धान के नन्हें पौध की जड़ों को 
मिट्टी की गहराइयों में रोपते, 
लंबी पगडण्डियों को तय करती हुई ,

उलाहनों की ठोकर खाते क्या 
तुमने सोचा था कभी घूँघट उठा कोलतार की सड़कों पर चल सकोगी ?
 जिसके नीचे दबी हैं पदयात्राएं तुमसे पहले भी कई पीढ़ियों की । 

मोटरगाड़ी में बैठ कर सही बताना
क्या तुम बिल्कुल निर्भीक थी 
या घबराई थी बगल में बैठे द्विअर्थी संवादों से ,
वासनात्मक ठहाके जो सिर्फ तुम्हारी देह 
को देखकर लगाये जा रहे थे ।

या बड़ी रेखा खींचने का सोच नाप आई हो सारा आसमान ।
अपने सशक्त हस्ताक्षर करते हुये
तुम्हारे कोमल हाथ काँपे तो न थे। रोशनाई बिखेरी 
तो नहीं तुमने।

कैसे विस्मृत कर लेती हो तुम उस असह्य वेदना को  
जो खुली हवा में साँस लेने के लिये बरसों-बरस मिलती रही 
तुम्हें शरीर के साथ आत्मा को भी किया 
गया लहूलुहान।

कहो न कहाँ से लाई इतनी शक्ति जिसने 
कई पीढ़ियों की बनाई चौखट को लाँघने में तुम्हारी मदद की।


लेखिकाः अनिता तिवारी "देविका"


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