मैं नहीं लिखना चाहती हूँ
कविता का एक भी शब्द!
हमेशा लगता है कि
इतने अँधेरे में,
इतनी घुटन में,
इस क़दर क़त्ल-ओ-गारत के माहौल में
कविता भला कर भी क्या सकेगी!
फिर गले में कुछ अटक सा जाता है I
शायद एक चीख I
मैं साँस लेने के लिए उसे बाहर लाना चाहती हूँ
और गले से निकले ख़ून सने शब्दों को,
घुटती हुई साँसों को,
दिल को निचोड़ देने वाले दर्द को,
अपनी सारी अनिद्रा और बेचैनी को
बयान कर देना चाहती हूँ
इस उम्मीद के साथ कि शायद
कुछ लोग हों जो समझ सकते हों
इन तमाम परेशानियों को I
और आलोचकों से तो बस इतना ही
कहना काफ़ी होगा कि
काव्यशास्त्र से नहीं जन्म लेती है कविता
बल्कि कविता से काव्यशास्त्र है
और कविता से नहीं है जीवन
बल्कि जीवन से कविता है I
और कवि के जीवन में अगर नहीं हैं
मुक्ति की दुर्निवार चाहत,
और जीवन को उसकी गरिमा वापस दिलाने के लिए
अंतिम साँस तक जूझने का हठ,
तो उसे फ़ौरन चले जाना चाहिए
किसी साहित्य महोत्सव में
और मोलतोल करके
अच्छी क़ीमत पर
ख़ुद को बेच आना चाहिए!
- कात्यायनी
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