साहित्य चक्र

21 November 2022

कबीर दोहावली भाग- 03


।। कबीर दोहावली ।।


भाग- 03




ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।

प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥


तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय ।

माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥


तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।

सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥


तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।

तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥


दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।

तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥


दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन ।

रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।

माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥


न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।

मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥


पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।

एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥


पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥


पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।

देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥


पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।

याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥


पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।

अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥


प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।

चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥


बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय ।

कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥


बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।

समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥


बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।

कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥


बानी से पहचानिए, साम चोर की घात ।

अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥


बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।

पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥


मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।

बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥


माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।

जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥


भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।

कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥


माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।

भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥


मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।

साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥


माली आवत देख के, कलियान करी पुकार ।

फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥


मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय ।

मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥


ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।

सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥


या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ ।

लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥


राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास ।

नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥


रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।

हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥


राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।

जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥


संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय ।

कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥


साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय ।

ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥


साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय ।

चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥


संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक ।

कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥


साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय ।

चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥


लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं ।

एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥


हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह ।

सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥


ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार ।

आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥


ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह ।

निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥


क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात ।

कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥


राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं ।

क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥


बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार ।

जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥


ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।

दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥


सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग ।

बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥


कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।

स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥


यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।

सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥


तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥

 

राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।

बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥

 

कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।

सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥

 

कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।

फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥

 

लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।

कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥


बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।

राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥


यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।

लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥


अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।

के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥


इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।

लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥


अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।

जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥


सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।

और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥


जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।

मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥


कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।

बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥


सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे ।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥


परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ ।

सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥


पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ ।

लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥


हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान ।

काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥


जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ ।

धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥


पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई ।

आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥


दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ ।

हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥


भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।

मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥


कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ ।

एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥


कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।

नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥


कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।

गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥


कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत ।

जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥


जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव ।

कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥


पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत ।

सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥


कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि ।

कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥


भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि ।

हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥


परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।

खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥


परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।

दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥


ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना ।

ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥


कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।

नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥


कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ ।

राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥


स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास ।

राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥


इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम ।

स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥


ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं ।

उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥


कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।

लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥


कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई ।

दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥


कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार ।

पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥


तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ ।

रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥


चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि ।

फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥


कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम ।

कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥


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