सत्य एक महसूसा मैने,
दीवारों के कान ही नहीं जुबां भी हुआ करती है,
यकीन नही?
पहाड़ के शिखर पर स्थापित मजबूत किले की उन तन्हा दीवारों से,
तन्हाइयो ,चमगादड़ो का आश्रय स्थल वे दीवारें बोलती है,
राजसी अतीत के साथ बतलाती है,
अपने निर्माण के कठोर श्रम, दृढ़ निश्चय की गाथा,
रनिवास के आँगन में खड़ा कनेर का वो बूढा वृक्ष,
करता गुफ्तगू इन चमकहीन,खूबसूरत दीवारों से,
रोशन था कभी तो आशियाना उनका भी,
ये फर्श जहाँ समाहित पागचिन्हिया वीरो की,
गूँजती महल की प्रांगण में करतल ध्वनि,
रानियों की ठिठोली ,झालरों की खनक,पायलों की झंकार,
घोड़ो का हिनहिनाना, पहाड़ो का खिलखिलाना,
दफन है सब इन दीवारों के ह्रदय में,
राज खोलती है ये स्वयं का उन सरल ह्रदय पथिको पर,
हैं उत्सुक जो इनकी आत्मा तलाशने में,
इस महानता, विशालता के बावजूद क्षुब्द है ये दीवारें,
महल का हर मोड़,दरवाजा,कंगूरा,चीख रहा उत्कट वेदना में,
देखा मैंने अश्रुपूरित थी दीवारे अपनी बदहाली,तंगहाली पर,
जमी सैकड़ो वर्षो की धूल भी छुपा न सकी दर्द उनका,
महल के कोने कोने फैला गंदगी साम्राज्य,
शराब की बोतलों के ढेर,
बना रहे थे उपहास उनके स्वर्णिम अतीत का,
भित्तियों की चमड़ी कुरेदकर गोदे गए वो नाम,
कलंक थे उस भव्य महल के सौंदर्य पर,
नाम नही ख़ंजर थे,
घायल थी जिनसे वो बेबस दीवारें,
वक्त और मौसम से जूझते बिखर गए थे कुछ हिस्से,
कुछ शायद विलुप्त थे,
किन्तु पत्थर पत्थर उनका प्रतीक था अदम्य पौरुष का,
पहाड़ के शिखर पर खड़ा वो पुराना महल,
आज किसी राजा की महत्वकांक्षा का प्रतिरूप नही ,
पत्थरो की एक वीरान इमारत भर था,
जाते जहाँ चमगादड़,आवरा पशु,गन्दगी फैलाने वाले,
महल में पसरा कूड़ा, मल त्याग,कुरेदे नाम,
तमाचा है हमारे सभ्य होने पर,
सह न सकी मैं दीवारों का करुण रुदन,
जिनका हर आंसू हम तहज़ीबगारो पर व्यंग था,
बोली वे मुझसे जो तुम बना नही सकते,सवांर नही सकते,
तो हक क्या तुम्हें हमे कुरूपता देने का,
नही चाहिए ऐसे मुरीद जो हमारे अस्तित्व पर अपनी छाप छोड़ जाना चाहे,
ऐसी आवाजाही से तो नीरवता कहीं भली,
निर्जनता हमसे हमारा सौंदर्य तो नही छीनती,
बस सुन न सकी मैं और कुछ ,
लौट आयी अपमानित ,निःशब्द।
लेखिका- पूजा भारद्वाज
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