हर बार जब मैं
गुजरती हूं शहर से,
अंधकार और प्रकाश को
ओढ़े हुए दिखती है
मुझे एक परछाई,
संवेदनाओं का प्रतिबिंब,
भावनाओं की मूर्ति
चिथडे से वस्त्र
अधनंगा खुला शरीर,
हाथ फैलाए हुए
सभी के समक्ष,
किसी से उसे
कुछ नहीं हुआ प्राप्त,
मैंने पूछी उससे
हाथ फैलाने की कहानी
उसके आंखों से
अश्रु की बूंदे
गिरकर ऐसी लुढकी
जैसे चिकने फर्श से पानी,
पोपल मुंह को खोलकर
ऐसे बोली
जैसे पानी वाला नारियल खाली,
बोली - "मेरा था एक बेटा
करता था नौकरी
बहु थी उसके
था बच्चा एक उसके,
परंतु... आगे नहीं बोल पाई वह
सहानुभूति की प्रतिमा,
मैंने पूछा परंतु... क्या ?
बोली.. हृदय पर हाथ रखकर
वाणी गंभीर कर,
चेहरे को सपाट कर,
मेरी स्थिति कि मैं स्वयं हूं जिम्मेदार
कहकर फिर रो पड़ी,
" मैं थी धीराणी घर की
मैंने किया उनको बाहर
जब मैं जवान थी,
मेरे हाथ पैर चलते ऐसे
सिलबट्टे के जैसे"
आज जब मुझे जरूरत है
मैं बुड्डी हुई पके फल जैसे,
बहू ने कहा बेटे से
कहां चले ?
आपकी मां को
हमारी जरूरत नहीं,
जब वह जवान थी
तब उसे नहीं थी जरूरत,
आज वह बुड्डी है
तो मुझे नहीं है जरूरत,
बेटा खुले ढक्कन की तरह
खुला रह गया
और मैं सड़क पर
हाथ फैलाती रह गई,
कह कर बुड्डी के टप टप
गिरने लगे अश्रु
और मैं सन्नी पात !
- बबिता कुमावत, सहायक प्रोफेसर

बहुत ही शानदार
ReplyDeleteशानदार कविता
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