क्यूँ नहीं आवाज़ उठती एक भी ललकार में
( मणिपुर में घटित घटना पर व्यथित मन के उद्गार)
नग्न कैसे कर घुमाया था भरे बाज़ार में।
था नहीं इक मर्द भी क्या भीड़ के अंबार में।
मर गई सब वेदनाएँ मर गई इंसानियत।
वेदना क्या सुन न पाये चीखती सिसकार में।
आबरू भी रो पड़ी, सम्मान की लाशें बिछीं।
है पराकाष्ठा पतन की डूबते संसार में।
बुत बने पत्थर के सारे, दिल पसीजा ही नहीं।
गिद्ध गीदड़ भेड़िये थे खोखली सरकार में।
बोल कान्हा मौन क्यूँ है, सुप्त क्यूँ सब चेतना।
क्यूँ नहीं आवाज़ उठती एक भी ललकार में।
- डॉ प्रतिभा गर्ग
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