दिन मशरूफ़ियत भरे तन्हा हर शाम रह गई।
खुद से बातें करते गुजरती उम्र तमाम रह गई।
न था कोई हमराज जिसे सुनाती हाल ए दिल,
बेख़्याली में करती खुद पर ही इत्तिहाम रह गई।
ख़्वाब देखे उसने भी मशहूर होने के ज़माने में,
मगर वो सदा से गुमनाम थी गुमनाम रह गई।
आम होकर खास बनने की ख्व़ाहिश रखती थी,
लोग आते जाते रहे वो करती इन्तिज़ाम रह गई।
सफ़र ए ज़िंदगी में न जानें कितनी राहें बदली,
मंजिल हाथ न लगी कोशिशें नातमाम रह गई।
वो संभलती रही उम्मीद का दीया जलाती रही,
मैं हारी नहीं ज़िंदगी को देती वो पैगाम रह गई।
बांध रखा था उसने इक डोर से ज़िंदगी को कला,
ज़िंदगी निकल पड़ी आगे हाथ में लगाम रह गई।
- कला भारद्वाज
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