नव निर्माण
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आसमान पर ड़ाला ड़ेरा
गाँव-शहर सबको आ घेरा
बड़ी दूर से चलकर आये
जाने कहाँ-कहाँ से आये
तरह-तरह के रुप बनाकर
बरसाते हैं मस्त फुहार
आ गये बादल लेके उपहार
समीर गा रही मीठी मल्हार
सौंधी-सौंधी खुशबू आती
कृषक मायूसी छटती जाती
करे प्रतीक्षा सजनी चिट्ठी की
भूले सजन सुध मिट्टी की
मेघ बरसते-मन तरसते
नयनों से नित झरने झरते
कौन सुने प्यासी पुकार
तपती धरती करे मनुहार
रे बादल मनभर बरसना
गरज-गरज कर बरसना
रह न जाये अधूरी आस
उढाये न कोई उपहास
तेरा अंश-अंश धरती के अंग
धरती के यौवन में उठे तरंग
तेरा बरसना, बरस कर जाना
श्रृष्टि का नव निर्माण करना
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
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