पूछती
जीवनदायिनी
प्यासी धरा!
कब तक
दोहन करोगे,
इस प्रवृत्ति से
अपने को कब
मुक्त करोगे?
लेते-लेते
अपनी संस्कृति का
मूलमंत्र ‘देना’ भूल गए
शुष्क, रीतती धरा की
व्यथा ही भूल गए,
सोच लो!
इस स्वार्थी
मनोवृत्ति के चलते
एक दिन ऐसा आयेगा
पानी के लिए
हाहाकार मच जायेगा
अपने हाथ में
कुछ नहीं रह जायेगा,
आने वाली पीढ़ियों के लिए
अपने कर्तव्य को समझो
पानी अनमोल है
इसकी बूँद-बूँद को अमृत समझो
अमृत कृपणता से
व्यय किया जाता है
भविष्य के लिए
सहेजा जाता है,
क्या मैं मान लूँ
तुम मेरी वेदना समझोगे?
कल ले लिए
आज अनमोल पानी का
मोल समझोगे?
——————————————-
डा० भारती वर्मा बौड़ाई
No comments:
Post a Comment