मैं स्कूल जाना नहीं चाहता था लेकिन मुझे मां ने जबरदस्ती स्कूल बस में बिठा दिया । मेरे सभी मित्र अपनी- अपनी साईकिल लेकर विद्यालय आते थे और मैं स्कूल बस में मानों जैसे अकेला . . ! शाम को ट्यूशन में भी सभी साइकिल लेकर आते थे लेकिन मै नहीं । रोज शाम को मैं खाना नहीं खाने की जिद करता और मां ' कल साइकिल दिला दूंगी ' ! कहकर शाम टाल देती थी । रोजाना साइकिल की जिद से मैंने तंग आकर मां को कह दिया कि आज साइकिल नहीं या फिर मैं नहीं ! मां का जवाब था - अपनी कक्षा में प्रथम आने पर तुम्हें नई साइकिल दिलाई जाएगी । यह सुनकर मानों मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई । यह मेरे लिए शेरनी के दूध लाने जैसा कठिन कार्य था . . . ! लेकिन नई साइकिल लाने का भूत भी सवार था मैं पढ़ाई में हमेशा से ही कमजोर रहा लेकिन मैंने मेहनत करना शुरू की और मैं अपनी कक्षा में चौथे स्थान पर रहा । सारी कक्षा दंग रह गई कि मैं चौथे स्थान पर कैसे रहा और मैं यह सोचकर उदास खड़ा था कि मेरी साइकिल आएगी या नहीं।
मैं शाम को घर गया और मां को अंक तालिका बताई । मां ने मुझे शाबाशी दी और कहा - ' बेटा अगली बार तुम ही प्रथम आओगे ' । अगले दिन जब रविवार को मैं देरी से उठा और मैंने देखा कि मेरे आंगन में एक नई साइकिल खड़ी थी । नई साइकिल देखते ही मेरी खुशियां आसमान हो रही थी . . और आंखों से आंसू छलक पड़े ! पापा ने पीठ थपथपाई और कहा बेटा यह नई साइकिल तुम्हारी है । अब से तुम स्कूल बस में नहीं अपनी साइकिल लेकर स्कुल जाओगे । मैंने पापा से तुरंत कहा - " मैं कक्षा में प्रथम नहीं आया " ।
पापा का जवाब था - " बेटा मेरे लिए आप ही प्रथम है । क्या हुआ यदि इस बार आप प्रथम नहीं आए मुझे विश्वास है आप अगली बार प्रथम जरूर आएंगे " । पापा का ज़वाब सुनकर मेरा आत्मविश्वास और मनोबल और भी बढ़ गया । मैं अब पूरी तरह पढ़ाई में लग चुका था और अपनी कक्षा में प्रथम स्थान मेरा लक्ष्य . . . !
कक्षा के सभी सहपाठियों ने मुझसे बोल चाल भी बंद कर दी थी । मन उदास होने लगता और मैं खुद को अकेला महसूस करने लगता तब मुझे अचानक से पापा की कही बात याद आ जाती । मैंने अच्छे से अपनी परीक्षाएं दी और परिणाम आने पर मैं अपनी कक्षा में प्रथम भी रहा । मेरा मन जी भर के साइकिल चलाने को आतुर था । अब पापा ने मुझे पढ़ने के लिए शहर के स्कूल में रख दिया जहां मुझे हॉस्टल में रहना पड़ता था । अब तो मम्मी- पापा भी मुझे सप्ताह या महीने भर बाद मिलने आते थे । हॉस्टल में , मैं ऐसा था मानो जैसे किसी जेल में कोई कैदी . . . !
वक्त गुजरता गया और मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था । मेरा मन पढ़ाई में पूरी तरह लग चुका था और मैंने पढ़ लिख कर सरकारी अध्यापक की नौकरी भी प्राप्त कर ली थी और मैंने अपनी नई कार भी खरीद ली थी । मैं अब मोटरसाइकिल व कार चलाने लगा था । एक दिन जब मैं कार लेकर अपने घर की ओर आ रहा था तो रास्ते में मैंने एक बच्चे को साइकिल ले जाते हुए देखा । मुझे तुरंत अपने बचपन वाली साइकिल की याद आ गई । मैं घर गया और अपनी साइकिल को ढूंढ कर बाहर निकाला । साइकिल की मरम्मत करवाई व कुछ देर के लिए साइकिल को चलाने लगा । उस पल का सुख मेरे लिए लाखों की कार चलाने से ज्यादा सुखदायी था । मैंने जी पर साइकिल चलाई तो मुझे लगा मानो जैसे मैंने दुनिया की सारी खुशियां प्राप्त कर ली हो ।
क्या आप भी अपनी बचपन वाली साइकिल को याद करते हो या नहीं ?
- सुनील पटेल सन्नाटा
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