साहित्य चक्र

06 July 2019

बैरन काली बदली

 प्यार के खत
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विरह की अग्नि में हम दहकते जा रहे हैं।
पल पल गुजरता युगों सा सहते जा रहे हैं।।

रात भी लंबी लगने लगी कब खत्म होगी।
कब उगेगा भोर का सूरज कहते जा रहे हैं।।

यादों की बारात में हम खूब नाचे खवाबों में।
सच जानते हुए भी  यादों में बहते जा रहे हैं।।

वो पीपल की छाँव में उनके संग बतियाना।
हाथों में हाथों लेकर आगे बढ़ते जा रहे हैं।।

प्यार के खत जो पुरानी डायरी में मौजूद हैं।
सूखे गुलाब भी यूँ ही सभी महकते जा रहे हैं।।

बैरन काली बदली अब न बरसो तुम यूँ ही।
तन्हाई में हम अकेले तन्हा जलते जा रहे हैं।।

                                             राजेश पुरोहित



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