साहित्य चक्र

06 July 2019

समस्या..!




भारतीय कृषक आज भी कर्ज के बोझ से लदा रहता है। और कर्ज से श्रापित रहता है। भारतीय कृषक जीवन की सशक्त अभिव्यक्ति के महत्वपूर्ण और इस्पाती दस्तावेज हिन्दी जगत में यदि देखा जाए तो गोदान उपन्यास और महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया है। हालांकि गोदान में शहरी कथा भी समांतर रुप से चलती है किन्तु उपन्यास किसान होरी महतो का जीवनवृत्त ज्यादा प्रभावी है। किसानों की तब भी समस्या कर्ज थी आज भी कर्ज है। आज भी कर्ज चुका नहीं पाने के कारण मराठवाड़ा विदर्भ आन्ध्र तेलंगाना मप्र उप्र के किसान ज्यादातर आत्महत्या करते हैं। सरकारें इस संबंध में घोषणा पत्र लेकर आतीं लेकिन कई बार सार्थक कार्य नहीं हो पाता है। क्योंकि महाजनी कर्ज का दायरा बड़ा होता है। 

तुलनात्मक अध्ययन - 

महाजनी कर्ज को भलीभांति समझना है तो महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया का वो दृश्य जिसमें सुखी लाला के ब्याज के सिस्टम को समझने के लिए बिरजू खीजकर पढ़ने जाता है जहां मास्टर की लड़की चंदा जो उसके बचपन की दोस्त हैं। उसे लाला के शोषण मूलक ब्याज का सिस्टम बताती है। वह बड़बड़ाते हुए जाते रहता है कि सुखी लाला चोर है तभी उसका सामना सुखी लाला की बेटी रुपा से हो जाता है। गोदान पर भी फिल्म बनी है जिसमें होरी का पात्र राजकुमार ने निभाया है। मदर इंडिया के राधा के श्यामू भी वही है।गोदान के दातादीन पंडित और मदर इंडिया का सुखी लाला का किरदार लगभग एक जैसा है। दोनों की नजर लोगों की धन संपत्ति पर ही रहती है। ऐसे किरदार आज भी ग्रामीण जनजीवन में यथावत मौजूद हैं और आज की स्थिति में एक से अधिक की संख्या में है।

 जब शोषण की पराकाष्ठा चरम पर होती है तब कोई बिरजू हो जाता है। किन्तु गोदान का होरी शोषण को अपना भाग्य समझता है। वह बगावत नहीं कर पाता। वह अपनी स्थितियों के लिए व्यवस्था को जिम्मेदार नहीं मानता। वह अपने भाग्य को जिम्मेदार मानता है। आज भी अधिकतर किसान महाजनी ब्याज में फंसे हैं और दिन दूनी रात चौगुनी अपना शोषण करवा रहे हैं और उनका रवैय्या होरी के समान है। वो बिरजू या गोबर नहीं बन पाते हैं। प्रतिकार की प्रकृति इनके स्वभाव में नहीं है। शर्मिले तो ऐसे हैं कि शुतुरमुर्ग भी शर्मा जाए। इसी शर्म लिहाज और इज्जत बचाने की दरकार और जद्दोजहद में वे आत्महत्या भी कर रहे हैं। दूसरी ओर एक बेशर्मी कर्ज लेकर घी पीने वालों का जो सत्ता बैंक व्यवस्था के संरक्षण प्राप्त तथाकथित उद्यमियों का जिनकी एक कंपनी और फर्म कर्ज लेतीं है। अपनी प्रतिभूति का एनपीओ भी जारी करती है। 

जिसमें आम लोग भी शेयर बाजार में पैसा लगाते हैं। कुछ दिन उनके शेयरों और म्युचुअल फंड्स में उतार चढ़ाव का नाटक होता है। फिर उनकी एक कंपनी और फर्म दिवालिया होती है। जबकि उनकी दूसरी कंपनीज फायदे में होती है। रसूक और पहुंच के बल पर अपने कर्ज को एन पी ए में डलवा लेते हैं। एन पी ए अर्थात ऐसे कर्ज जिसकी वसूली की संभावनाएँ नगण्य है। और उनकी दूसरी कंपनियां और विदेशी खाते मौज में रहते हैं उनकी दिनचर्या में कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह धनवान बेईमानों की महागाथा है जो देश को खोखला कर रहे हैं। जिसकी भरपाई बैंक के विभिन्न चार्जेस के रुप में आप चुका रहा है। उधार की घी पीने वाली अर्थ व्यवस्था को आप बचा रहे हैं। और भागे भगौड़ै विजय माल्या जैसे लोग मैनचेस्टर में बैठकर भारत पाकिस्तान वनडे क्रिकेट मैच का लुत्फ उठा रहे हैं। एक सिर्फ वही नहीं कई देश के अंदर भी है और मौज में हैं। ऐसा 1947 से ही होता आया है आज भी वही रवैया है। 

अब थोड़े मामले प्रकाश में आए हैं। धन्य है भारतीय दर्शक जो विजय माल्या को मैनचेस्टर में और अन्य मैदानों में चोर-चोर बोल रही है और उसे उसकी वास्तविक स्थिति का अहसास करवा रही हैं। हालांकि इससे माल्या के स्टेटस में किसी प्रकार कोई प्रभाव नहीं पड़ना है। इनकी चमड़ी काफी मोटी और सक्त है। हया और लिहाज तो बेचारे किसानों और मजदूरों के पास है जो अपने कर्ज न चुका पाने की खातिर लटक जा रहे हैं। 

बिरजू की दादी मदर इंडिया में राधा और श्यामू की शादी में कटु यथार्थ कहतीं हैं। सब कह रहे हैं कि काकी ने श्यामू की शादी कर्ज लेकर किया है। हाँ लिया है लिया तो लेकिन चुकायेगी कैसे। यह कहते हुए बिरजू की दादी अपनी भाव भंगिमाओं से अपना और अपने परिवार का भावी भविष्य बताती है। होता भी इसके अनुरूप है। इधर गोदान का नायक होरी और उसका परिवार जी तोड़ मेहनत के बाद भी दातादीन का कर्ज चुकाने में सक्षम नहीं हैं। जीवन से हार कर अपनी पत्नी धनिया से कह रहा है कहा सुना माफ हो धनिया। और वह मर जाता है। दातादीन उसकी मौत पर गौदान लेने के लिए आज भी परंपरा के रूप में आज भी यथावत खड़ा है। दोनों कृतियाँ किसानों की समस्याओं के लिए एपिक्स या महाकाव्यत्मक गुणों के साथ भारत में सर्वकालिक अमर है। 

निष्कर्ष - 
किसान अन्नदाता है। दाता दाता रहे वह भिखारी न बने ऐसी केन्द्र और राज्य सरकारों का व्यवहार होना चाहिए । भारत आज भी गांवों का देश है। गांधी और अन्य कहते थे कि भारत ग्रामों का देश है। और कृषि गांवों की आजीविका का मुख्य स्रोत है। कृषि और किसान दोनों इस व्यवस्था में जीवित रहें ऐसी नीतियाँ बने। कृषि से संबंधित बीज उर्वरक आदि किसान को उपलब्ध रहें। अपने उत्पादों का किसानों को उचित मूल्य मिले। सब कुछ होने पर किसान अपनी फसलों का सही दाम न पा सके तो यह भी व्यवस्था जन्यदोष और शोषण है। किसान भी बदलें वो उगाये जो आसानी से बिक जाये वो नहीं कि उस पर कर्ज चढ़ जाये।

न बदला कुछ है न बदलेगा कुछ। 
तू बदल सब कुछ बदलेगा। 
व्यवस्थाओं का रोना रोना व्यर्थ है। 
तू बदल और बदल किस्मत गर तू समर्थ हैं। 
जय जवान जय किसान जय हिंद जय भारत। 



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