साहित्य चक्र

14 July 2019

अंकुरित हो कर

कल्पना का बीज
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सुहृदय 
रोप दिया था तुमने ,
कल्पना का जो बीज !!

अंकुरित  हो कर
क्रमशः
अक्षर,शब्द ,
पंक्ति बन गया !!

भावना नीर,
संवेदना पवन,
अनुभूति प्रकाश,
मिलता रहा सतत ;
पल्लवित हुआ नन्हा 
सृजन का पौधा !!

पुष्पित होने लगा,
खिलने लगे 
गीत, दोहे, मुक्तक !!




 महकने लगीं 
मन की वादियाँ !!

कल्पना का वह बीज;
अब मेरे पोर -पोर में
पीर पैदा कर देता है !!

प्रसव वेदना सरीखी,
बड़ी अनूठी,मीठी !
प्रस्फुटित होते गीत
फूट पड़ते हैं
झरनों की भांति,
कल- कल करते
उनकी चंचलता
लुभाती बहुत है !!

कलम उत्तरीय से ढँकती,
दुलारती उन्हें,
और प्यार से चूम लेती है!!

तब महक उठते हैं गीत,
थिरकने लगती 
रागिनी ,
अनन्त 
स्वर लहरियों सँग!!

                                                             रागिनी स्वर्णकार


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