साहित्य चक्र

28 July 2019

अजय प्रसाद के अपने विचार-


भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता 
रहम दिलों में भी जरा नहीं होता ।



बेहद उन्मादि खौफनाक इरादों पे 
इंसानियत का पहरा नहीं होता ।



बस हिंसक बेकाबू सोंच होती है 
रिश्ता मज़हब से गहरा नहीं होता ।



हादसे दर हादसे होते रहे 
हम बस आश्वासन ढोते रहे ।

मुआवजे और राहत के बाद 
सरकारी ओहदेदार सोते रहे।


न मसीहा,न पैगम्बर, न कोई अवतार है 
कितना बदनसीब आजकल ये संसार है ।

भटके हुए हैं लोग तरक्की के जंगलों में 
ईमानदारों पे पतझड ओ भ्रष्टों पे बहार है ।

लाश इंसानियत की हम इन्सान ढो रहे हैं 
देख करतूतें हमारी अब शैतान रो रहे हैं ।


खुद से ही आज लड़ रहा आदमी 
सपनों के ढेर पर सड़ रहा आदमी ।

खुदगर्ज़ी हो गई हावी इस कदर है 
खुद की नजरों मे गड़ रहा आदमी।


                                                             -अजय प्रसाद 




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