भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता
रहम दिलों में भी जरा नहीं होता ।
बेहद उन्मादि खौफनाक इरादों पे
इंसानियत का पहरा नहीं होता ।
बस हिंसक बेकाबू सोंच होती है
रिश्ता मज़हब से गहरा नहीं होता ।
हादसे दर हादसे होते रहे
हम बस आश्वासन ढोते रहे ।
मुआवजे और राहत के बाद
सरकारी ओहदेदार सोते रहे।
न मसीहा,न पैगम्बर, न कोई अवतार है
कितना बदनसीब आजकल ये संसार है ।
भटके हुए हैं लोग तरक्की के जंगलों में
ईमानदारों पे पतझड ओ भ्रष्टों पे बहार है ।
लाश इंसानियत की हम इन्सान ढो रहे हैं
देख करतूतें हमारी अब शैतान रो रहे हैं ।
खुद से ही आज लड़ रहा आदमी
सपनों के ढेर पर सड़ रहा आदमी ।
खुदगर्ज़ी हो गई हावी इस कदर है
खुद की नजरों मे गड़ रहा आदमी।
-अजय प्रसाद
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