साहित्य चक्र

21 July 2019

अपने कल्पित अनुमान


उन्मादी भीड़

एक विचित्र प्रतिद्वंद्विता में
वे लोग अश्रांत उलझते रहते हैं
अपने कल्पित अनुमान के चलते
स्वयं को क्रोधांध करते रहते हैं

पूर्वजों से सीखे मनुष्यत्व के पाठ
प्रतिपल तिरस्कृत होते रहते हैं
तामसिक संकल्प गुंजित किए हुए
वे सत्व नाद क्षीण करते रहते हैं

उनके पास ना सोच है ना विचार हैं
विवेक को वे परास्त करते रहते हैं
कालिख से भी काली है उनकी स्याही
मन्त्रबिद्ध वे मृत्युयोग लिखते रहते हैं

गठिबंध कुचक्र में हिंसा को आदर्श बना
वे मिथ्या धर्मचर्या के प्रमाण देते रहते हैं
गहन उन्मत्तता में परखते कुछ नहीं
नैतिकता की सीढ़ियां उतरते रहते हैं

मृत्यु दूत भी अब निरंतर क्रीड़ारत हैं
आपस में रिले-रेस लगाते रहते हैं
हर मृत्यु के बाद का रुदन-क्रंदन
भविष्य की मृत्यु को थमाते रहते हैं

आत्म मुग्ध सी उनकी कुटिल आंखों में
हिंसक दृश्यों के अभ्युत्थान होते रहते हैं
उनके हाथों में है नायाब अस्त्र विद्या
वे जीवन के अनुबंध तोड़ते रहते हैं

आखिर कब जाकर छुएगा तथा गत के पैर
प्रतिक्षारत मृतक अपना ‘रक्त’ देखते रहते हैं।

                         © अनुजीत इकबाल



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