साहित्य चक्र

14 July 2019

आलोचना की प्रासंगिकता


आलोचना, समीक्षा या समालोचना का एक ही आशय है, समुचित तरीके से देखना जिसके लिए अंग्रेजी में 'क्रिटिसिज़्म' शब्द का प्रयोग होता है। साहित्य में इसकी शुरुआत रीतिकाल में हो गई थी किन्तु सही मायने में भारतेन्दु काल में यह विकसित हुई। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का इसमें महती योगदान है जिसको रामचन्द्र शुक्ल ने परवान चढ़ाया। दिनकर, मिश्रबंधु, श्यामसुन्दर दास, रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र, विश्वनाथ और डॉ. नामवर सिंह का नाम इसके उन्नायकों में है। अब पहला सवाल है कि आलोचना क्यों जरूरी है? दूसरा सवाल है कि आलोचना कैसे हो? तीसरा सवाल है कि आलोचना किसकी हो? और चौथा सवाल है कि आलोचना कौन करे? आइए इन सवालों पर विचार करते हैं।

कोई भी रचनाकार जब सृजन करता है तो अपने हृदय में प्रस्फुटित समग्र भावों को पूर्णतया सजा - सँवारकर व्यवस्थित करता है। वह अपनी पूरी दक्षता लगा देता है सृजन के संदर्भ में। कला पक्ष और भाव पक्ष में यथाशक्ति सामंजस्य स्थापित करते हुए पूर्णता प्रदान करता है। उसे उस वक्त लगता है कि उसका सृजन उसके लिए सर्वोत्तम है। जब उसका सृजन किसी आलोचक के हाथों में आता है तो आलोचक अपने ज्ञान की तुला पर रखकर उसका मूल्यांकन करता है। उक्त रचना से सम्बंधित पूर्व स्थापित मानकों, मानकों में परिवर्तन की सम्भावनाओं और समाज पर पड़ने वाले प्रभावों की दिशा व प्रबलता की छानबीन करता है। फिर तर्क - वितर्क के साथ उससे सम्बंधित साक्ष्य रखकर अपना निर्णय सुनाता है। माना तो यह जाता है कि आलोचक को तटस्थ रहना चाहिए किन्तु यह परम आदर्श की स्थिति सम्भव नहीं और अल्पांश में उचित भी नहीं क्योंकि बहुत बड़े उद्देश्य में सहायक छिटपुट पक्षपात आपद् धर्म की तरह आवश्यक और स्वीकार्य होता है। आलोचक से अपेक्षा की जाती है कि वह न सिर्फ पूर्ण जानकार हो और न सिर्फ समस्त साहित्य का गम्भीर पाठक हो बल्कि रचना में निहित गुण- दोष को समझकर भविष्य की सम्भावनाओं को तलाशने में सक्षम भी हो। आलोचक को लचीला भी होना चाहिए जिससे समयानुसार आलोचना के मानक में परिवर्तन अपेक्षित हो तो कर सके। स्वयं के पूर्वाग्रह पर काबू भी रख सके।



प्राय: देखा गया है कि आलोचक भी खेमेबाज हो गए हैं। पृथक मानसिकता से व्युत्पन्न मान्यताओं के मद्देनजर आलोचक कई समूहों में बँट चुके हैं। हर समूह का अपना नपना होता है जिसपर रचनाओं को मापा जाता है। अब यह रचना के भाग्य पर निर्भर है कि वह पास हुई या फेल या किस स्तर की साबित हुई! उसे गुणांक कितना मिला! यह भी अक्सर देखा गया है कि एक ही रचना को आलोचना के उपरान्त कई तरह की प्रतिपुष्टियाँ मिलती हैं क्योंकि आलोचकों के नपने कई संहति के होते हैं। कोई जनवादी होता है तो कोई स्त्रीवादी। कोई पूँजीवादी तो कोई मार्क्सवादी। कोई आस्तिक तो कोई नास्तिक। चूँकि सृजन अनवरत परिवर्तनशील होता है इसलिए इसे समय के बंधन में बहुत देर तक कदापि बाँधा नहीं जा सकता फिर तो आलोचना के स्थायी मानक में बाँधने की चेष्टा भी दुस्साहस और विफल ही है। इसका यह आशय कदापि नहीं है कि पुराने मानक प्रयोजन हीन हैं बल्कि संशोधन की सम्भावना को देखते हुए समाजोपयोगी होने पर नये का स्वागत किया जाना चाहिए और पुराने का त्याग। सिर्फ परम्परा की हठधर्मिता पर नये मानकों की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती।

एक समय था जब काव्य सृजन की कल्पना छंद से परे की ही नहीं जाती थी। सदियों से चली आ रही इस परम्परा को चुनौती दिया महाप्राण निराला ने। 'मैनें मैं शैली अपनायी' के साथ छंद के बंधन तोड़ काव्य को स्वच्छंद कर लिए। यद्यपि यह नई राह उनके लिए आसान नहीं थी। सरस्वती का कोप सह-सहकर जुही की कली खिली। एक शतक तक अतुकांत रचनाओं का दौर बाखूबी चला। अब पुन: प्राचीन छंदों के प्रति मोह बढ़ने लगा है। कुछ नए छंद भी स्थापित करने की कोशिश जारी है।  कितने ही प्राचीन छंदों को आज के नवोदित कलमकार संजीवनी पिला रहे हैं। अतिशयोक्ति सिमट रही है। नागार्जुन और धूमिल के यथार्थ का पौध वृक्ष बन गया है। प्रबुद्ध आलोचक भी समाज में बहती हवा के साथ अपना बैरोमीटर सेट कर लेते हैं और भविष्य के मौसम का पूर्वानुमान घोषित कर देते हैं। प्राचीन साहित्य नायकों के परित: घूमता था लेकिन समय की अँगड़ाई के साथ नायिका की भूमिका सशक्त होकर समानता की ओर अग्रसर है। इसके साथ ही नायक और प्रतिनायक के मानक में भारी परिवर्तन दृष्टिगत है। आदर्श के चोले को ओढ़ चुका महानायक अतिवाद की भेंट चढ़ गया। अब पत्थर तोड़ती सर्वहारा वर्ग की महिला, वापसी करता स्टेशन मास्टर, शैक्षिक बेरोजगार युवा या बूट पॉलिश करता नौनिहाल महानायक बन जाता है।

तुलसी, बिहारी, कबीर, जायसी या सूर जैसे कवियों को आलोचक मिले सैकड़ों वर्ष बाद। आलोचकों के अकूत श्रम से न केवल उन रचनाओं पर टीकाएँ आईं बल्कि उनके निहितार्थ, प्रयोजन और वर्तमान में उपयोगिता से भी हम परिचित होकर लाभान्वित हो रहे हैं। अतएव कृतित्व का प्रचार- प्रसार और पाठक के लिए उपयोगिता में वृद्धि हो रही है। आलोचक उस ट्रैफिक पुलिस की तरह होता है जो रचनाकार की रचना में पथ से विचलन को कभी कठोरता और कभी माधुरता से बताता है। कहाँ, कब और कितना विचलन हुआ, स्पष्ट कर देता है सबूतों के साथ। इसका परिणाम यह होता है कि रचनाकार तद्नन्तर सृजन करते हुए भी सजग रहता है। भावों के प्रवाह में भी आलोचक के प्रभाव को महसूस करके स्वनियन्त्रित होता है। बची खुची कसर तो आलोचक पूरा कर ही देता है। ट्रैफिक नियमों के बार - बार उल्लंघन का सकारात्मक पहलू भी है। बहुसंख्यकों द्वारा लगातार उल्लंघन ही पुनर्विचार का प्रमुख कारण बनता है और आहिस्ता- आहिस्ता नियमों में संशोधन की दरकार बताता है, ध्यानाकर्षण करता है। जब बहुतेरे रचनाकारों की बहुसंख्यक रचनाएँ परम्परा से हटकर किसी एक दिशा में लगातार अग्रसर होती हैं, किसी 'वाद' विशेष को जन्म देती हैं तो आलोचक को भी आलोचना का पूर्व मानक संशोधिन करना ही पड़ता है जिससे उस वाद या चलन के साथ जुड़कर आलोचक न्याय कर सके......। लगातार ट्रैफिक टूटने से मार्ग के चौड़ीकरण या वैकल्पिक मार्ग जैसे कुछ अन्य उपाय सामने आते हैं।

रचनाकार प्राय: वर्तमान में जीता है जो भविष्य तक पढ़ा जाता है, अपना प्रभाव डालता है। इसके विपरीत आलोचक अतीत का जानकार होता है, वर्तमान को समझता है और भविष्य का सटीक अनुमान लगाने में सिद्ध होता है तभी वह रचना का तोल - मोल कर पाता है। इसलिए आलोचना साहित्य में कदम बढ़ाने से पहले स्वयं को परिपक्व एवं नीर- क्षीर विवेक युक्त कर लेना आवश्यक है। इन्हीं विशेषताओं के कारण आज भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आलोचना साहित्य के महानायक माने जाते हैं। आलोचक के दिलो दिमाग में अतीत की अच्छाइयाँ, वर्तमान की माँग और भविष्य की अपेक्षाएँ लबालब भरी होनी चाहिए और उसकी पैनी दृष्टि से कोई भी साहित्य फिसलना नहीं चाहिए तभी वह वर्तमान के साथ न्याय कर सकेगा। गुटबन्दी या खेमेबाजी न सिर्फ आलोचना साहित्य बल्कि सृजन साहित्य को भी गर्त में डाल सकता है, अमानवीयता की ओर ले जा सकता है, जन सरोकार से दूर कर सकता है, आत्महन्ता बना सकता है। अत: जिनके हाथ में बहुधारी तलवार हो, उनको बहुत ही सजग होना पड़ता है वरना कभी दूसरों और कभी खुद के चोटिल होने का खतरा आसन्न रहता है। कोई अनभिज्ञ नहीं है कि जन जागरण के नाम पर खड़ी मार्क्सवादी आलोचना में 'जन' ही गायब हो गया। जिनके दीयों से थोड़ा- थोड़ा तेल लेकर नामवर सिंह मार्क्सवादी आलोचना के सूरज बने, उन दीपकों को भूलकर इतने आत्ममुग्ध हो गए कि दीपकों के असमय बुझ जाने का भी भान उन्हें न रहा। ऐसे ही बहुत से उदाहरण आलोचना के माथे पर बदनुमा दाग हैं।


निष्कर्ष यह निकलता है कि रचनाकार और आलोचल एक- दूसरे पर अन्योन्याश्रित होते हैं और दोनों ही साहित्य के आवश्यक अंग हैं। दोनों से दोनों का अस्तित्व है। रचनाकार भाव के प्रभाव में प्रवाहित होता है जिसे आलोचक द्वारा अहर्निश विचलन का भान कराया जाना चाहिए और रचनाकार को भी आलोचना को अनमोल उपहार समझकर आत्मीयता से ग्रहण करना चाहिए। तभी साहित्य का सर्वांगीण एवं अपेक्षित विकास हो सकेगा।

                                                      डॉ. अवधेश कुमार 'अवध'




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